स्वर्ण सुन्दरी
मनहरण घनाक्षरी
नारि यह नवेली सी
सुवर्ण की हवेली सी
नहीं पर पहेली सी
स्वर्ण का श्रृंगार है।
रमणी है या अप्सरा
देख मन नहीं भरा
सोना लगे खरा खरा
रूप तो अपार है।
नयन हैं झुके झुके
सोच कुछ रुके रुके
नेह कर चुके चुके
कली कचनार है।
काजल है सुहावनी
लाली अति लुभावनी
लगती मनभावनी
भाव भरमार है।
बेटी है अम्बानी की
गहने पाई नानी की
पता नहीं कहानी की
माया बेशुमार है।
प्यार इससे हो गया
रूप में इस खो गया
बाद में संभल गया
नकचढ़ी नार है।
स्नेहलता पाण्डेय 'स्नेह'
नई दिल्ली
Seema Priyadarshini sahay
11-Jan-2022 04:29 PM
बहुत खूब
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