कसम
कसम
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बेशर्त थे जज़्बात मेरे
तू आए या ना भी आए
कोई शिकायत नहीं की
रूहानी थे अरमान मेरे
तू सोचे या ना भी सोचे
कोई शिकायत नहीं की
रोज दफन होती ख्वाहिशें
मिन्नतें खामोश हो तो क्या
तू पढ़ पाता अल्फ़ाज़ मेरे
दिल के पन्ने कोरे थे तो क्या
वहां बहुत कुछ लिखा था
पर तुम कहां समझ पाते
कितनी अनकही अनसुनी
अनपढ़ी रह गई थी कसमें
मैंने कभी याद रखी नहीं
तुमने कभी समझी नहीं
फिर भी वो मौजूद थी
काश बिन कहे समझ जाते
प्रेम.. रस्मों को ही नहीं
कसमों को निभाने का
तुमसे हक मांगता है
बेशर्त बेवजह बेहिसाब
तुमसे वो वफ़ा मांगता है
दूर हो नज़रों से चाहें
हर पल पास होने का
एक अहसास मांगता है
कुछ नहीं होने पर भी
सबकुछ निभाने की
एक कसम मांगता है
@ meenakshi kumawat Meera
Nika
03-Jun-2021 09:37 PM
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति। एक सकारात्मक संदेश देती रचना!
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Aliya khan
03-Jun-2021 08:53 PM
बहुत खूब
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Kumawat Meenakshi Meera
03-Jun-2021 08:54 PM
Thanks dear
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Apeksha Mittal
03-Jun-2021 08:52 PM
Best line Mem
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Kumawat Meenakshi Meera
03-Jun-2021 08:54 PM
Thanks dear
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