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विनती करती रही


विनती करती रही(प्रतियोगिता के लिए)


देखकर जग की दुर्दशा,
आराधना करती रही।
आ कर उबारो नाथ अब,
विनती ये करती रही।

धैर्य को खोया नहीं था,
कंटक भरा था कर्म पथ।
मार्ग दानव मिल रहे थे,
वासना से प्रेरित मलिन।
कामुक नयन के जाल से
बचकर सदा चलती रही।

जल गई थी पूर्णतया,
कुत्सित हवनकुंड की अग्नि में।
कर दिया था तन को मलिन,
कुछ पापियों के काम ने।
आत्मा छलनी हुई पर,
संताप को सहती रही।
आ उबारो नाथ अब
विनती ये करती रही।

अचल खड़ा पर्वत विशाल,
लक्ष्य के मेरे सामने।
सदा हताश करता रहा,
अभीष्ट को दे न थामने।
मैं भी अडिग संकल्प ले,
श्रम कठिन  करती रही।

किस तरह से नाश हो तम,
सर्वत्र दीप्त प्रकाश हो।
दूर हो संताप जग का,
जगमग चमकती आस हो।
वसुधैव कुटुंबकम भाव की
लौ साथ ले चलती रही।
आ उबारो नाथ अब
विनती ये करती रही।

स्नेहलता पाण्डेय 'स्नेह'


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2 Comments

Seema Priyadarshini sahay

26-Jan-2022 01:29 AM

बहुत खूबसूरत

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Swati chourasia

25-Jan-2022 04:28 PM

Bohot hi khubsurat rachna 👌

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