Sonia Jadhav

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मेरी अना- भाग 4

भाग 4
अना की मम्मी को अनिकेत और अना की दोस्ती के बारे में पता था। दोनों परिवारों के बीच जान-पहचान भी थी। अना अपनी मम्मी को हर बात बताती थी क्योंकि वो माँ से ज़्यादा एक दोस्त थीं। लेकिन अपने पापा से वो तब तक बात छिपाती थी, जब तक बहुत ज़रूरी ना हो बताना।

उसे वैसे भी अभी बहुत लड़ाइयाँ लड़नी थीं। इसलिए वो अपने और अनिकेत की खतों वाली दोस्ती के बारे में कुछ बात नहीं करना चाहती थी। यह दोस्ती कब तक रहेगी, और रहेगी भी कि नहीं, इसका कुछ अता - पता नहीं था। अक्सर फासले रिश्तों पर भारी पड़ जाते हैं।

अनिकेत के यहाँ भी उसकी मम्मी को मालूम था लेकिन पापा को नहीं। उसके पापा को उनकी दोस्ती के बारे में पता चल जाता तो कोहराम मचा देते और अभी कोहराम मचाने का समय आया नहीं था, बहुत वक़्त था उसमें। अभी तो बस अनिकेत को खुद को साबित करना था।

उसे साबित करना था कि लेखक भी पैसा कमा सकते हैं। डॉक्टर, इंजीनियर के अलावा भी दुनिया में सफल लोग हैं। समस्या यहाँ  सिर्फ डॉक्टर, इंजीनियर तक सीमित नहीं थी। परेशानी तो यह थी अनिकेत को लेखन में कुछ करना था और उसके पिता के अनुसार लेखकों के नसीब में गरीबी के सिवा कुछ और नहीं होता। वो नहीं चाहते थे कि उनका बेटा एक झोलाछाप लेखक की ज़िंदगी जिये।
सभी अपनी अपनी जगह सही थे। जब तक अनिकेत खुद को साबित नहीं कर देता तब तक उस पर उंगलियाँ उठतीं ही रहेंगी। अनिकेत का सारा ध्यान सिर्फ और सिर्फ अपनी पढ़ाई पर था।

कुछ दिनों बाद अनिकेत को अना का ख़त मिला। उसका ख़त पढ़ते ही एक अजीब सा सुकून महसूस हुआ था अनिकेत को। यह जानकर अच्छा लगा था कि जिस तरह अना को उसकी कमी खलती थी, ठीक वैसे ही अनिकेत को भी उसकी बहुत कमी खलती थी।

अना ने एक सवाल पूछा था ख़त में, फ़िलहाल जिसका अनिकेत के पास कोई जवाब नहीं था। बहुत कुछ था कहने के लिए मन में लेकिन यह सही समय नहीं था जज़्बातों को जुबाँ पर लाने का। इस बार अनिकेत ने लगभग दो महीने बाद ख़त लिखा था अना को। फोन पर बात करने के लिए अना ने वैसे भी मना किया हुआ था। फ़ोन पर पाँच मिनट  बातचीत करके कम से कम एक दूसरे के हालचाल तो पूछ सकते थे लेकिन ख़त लिखने में और फिर उसे पोस्ट करने में बहुत समय लग जाता था। वैसे भी हर जज़्बात को लिखना इतना आसान कहाँ होता है? कुछ जज्बातों को कभी-कभी अनकहा छोड़ देना ही बेहतर होता है।

ख़त लिखना सब्र करना सिखाता है और फ़िलहाल अना और अनिकेत की दोस्ती में सब्र की बहुत जरूरत थी। दोनों को ही अपने सपनों को पूरा करने के लिए एक लंबा रास्ता तय करना था।

आखिर दो महीने के इंतज़ार के बाद अना को अनिकेत का ख़त मिला। हर बार वो खत का बेसब्री से इंतज़ार करती थी। कभी-कभी अना को लगता था वो क्यों खतों के सिलसिले में उलझी, फोन बेहतर उपाय था बातचीत का। अनिकेत के खतों का इंतज़ार उसे और भी अनिकेत के करीब ला रहा था। ख़त के मिलने पर जितनी ख़ुशी होती थी, ना मिलने पर उतनी ही गहरी पीड़ा का अनुभव होता था। पीड़ा को उसने खुद ही अपने हाथों से अपने मन की दीवारों पर लिख दिया था।

अनिकेत का ख़त पहले ख़त के मुकाबले काफ़ी छोटा था, फिर भी खूबसूरत था अपनेपन की खुशबू में लिपटा हुआ। इस बार अनिकेत के खत का मिज़ाज  अलग था कुछ इस तरह….

प्रिय अना
जानता हूं तुम नाराज़ होंगी मुझसे, दो महीने बाद जो खत लिख रहा हूँ। क्या करूँ बोर्ड की परीक्षा का बहुत मानसिक दबाव महसूस कर रहा हूँ। तुम भी तो नही हो यहाँ बात करने के लिए। तुम जानती हो तुम्हारे सिवा मैं अपनी व्यक्तिगत बातें किसी से नहीं करता। तुमसे कभी भी कुछ कहने की ज़रूरत नहीं पड़ी मुझे। एक तुम ही तो हो जो मेरी ख़ामोशी को भी समझ लेती हो। तुम्हारी कमी बहुत महसूस करता हूँ।

मैंने एक निर्णय लिया है जब तक बोर्ड की परीक्षा नहीं हो जाती, मैं तुम्हें ख़त नहीं लिखूँगा लेकिन तुम्हारे खतों का इंतज़ार रहेगा। मेरी बात समझने की कोशिश करना अना, गुस्सा मत होना। सुखद भविष्य के लिए वर्तमान पर ध्यान देना जरूरी है।

तुम देखना एक दिन बारिश में चाय की टपरी पर खड़े होकर आधे गीले आधे सूखे अनिकेत और अना वड़ा पाव ज़रूर खाएंगे।
अपना ख्याल रखना, ख़त लिखती रहना।

तुम्हारा दोस्त
अनिकेत

अनिकेत का ख़त मानो मुम्बई में मानसून का आना, तपती हुई धरती पर जैसे बारिश की पहली फुहार। इस इंतज़ार की पीड़ा में भी एक मिठास थी जो अना के मन के हर कोने को ख़ुशी से भर देती थी। अनिकेत के ख़त ने अना को एक उम्मीद दी थी जो उनकी दोस्ती से ज़्यादा ख़ास थी।

जब भी अनिकेत का ख़त आता, अना एक भी क्षण गँवाय बिना अनिकेत को ख़त लिखने बैठ जाया करती थी।
आज़ भी वो खिड़की के पास बारिश को देखते हुए अनिकेत को ख़त लिख रही थी।

प्रिय अनिकेत
नाराज़ नहीं हूँ तुमसे, हाँ लेकिन उदास ज़रूर थी, तुम्हारा ख़त जो दो महीने बाद आया। वैसे आ गया ये भी बहुत बड़ी बात है। अपनी पढ़ाई में से 10 मिनट मेरे लिए निकालना बहुत मुश्किल होता होगा ना? ठीक है जब तक तुम्हारी बोर्ड की परीक्षा खत्म नहीं हो जाती तब तक मैं तुम्हें ख़त लिखने के लिए नहीं कहूँगी। वैसेे भी ख़त लिखना या ना लिखना तुम्हारी इच्छा पर निर्भर करता है, इससे मेरा क्या लेना-देना।

गुस्सा करना तो नहीं चाहती थी लेकिन क्या करूँ आ रहा है। तुम जानते हो तुम्हारी दोस्त अना को गुस्सा जल्दी आ जाता है। वैसे माफ़ करना मुझे, तुम्हारा ख़त ना लिखने का निर्णय अपनी जगह ठीक है। मैं भी सोच रही हूँ तुम्हें आगे से खत ना लिखूं। मेरे खतों से तुम्हारा ध्यान भटक सकता है, है ना? देखती हूँ मन किया तो खत लिखूंगी वरना नहीं, सब मन पर निर्भर है और मन की अवस्था किसी और पर निर्भर है।

बस यही चाहती हूँ जल्दी से तुम्हारी बोर्ड की परीक्षा खत्म हो जाए और तुम कॉलेज जाओ, अच्छी जगह काम करो और अपने सपनों को पूरा करो और उसके बाद???
चलो कुछ अनकहा रहने देते हैं हमारे बीच। शेष बातें मिलने पर होंगी, अगर कभी मिले तो।

मेरे गुस्से पर ध्यान मत देना, तुम बस अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो। इस वक़्त वही सबसे ज़रूरी है। नाराज़ होने का अधिकार है मुझे, इसलिए नाराज़गी ज़ाहिर की। क्या करूँ तुम्हारी तरह शांत स्वभाव की नहीं हूँ मैं। तुम्हारा ख़त पढ़कर मुझे बहुत अच्छा लगा। उस बारिश का इंतज़ार रहेगा जब तुम मुझसे मिलने आओगे।
कभी-कभी बहुत कुछ कहने को दिल करता है लेकिन फिर रोक लेती हूँ। खैर तुम अपना पढ़ाई में ध्यान दो, इस वक़्त उससे ज्यादा और कुुुछ जाट

लिखूंगी खत कुछ समय बाद फिर से तुम्हें, अपना ख्याल रखना। तुम्हें पता है तुममें खास बात क्या है?

अगर एक बार तुम अपनी जिद पर आ जाओ तो तुम उसे पूरा करके ही रहते हो। अपने सपनों को अपनी ज़िद बना लो। कोई कुछ भी कहे तुम अपने दिल की आवाज़ को कभी अनसुना मत करना। एक बार कदम बढ़ गए मंज़िल की ओर तो रास्ते खुद ब् खुद मिल जाएंगे, राह में गिर भी गए ग़र, तो मैं रहूँगी ना सदा तुम्हारे पास तुम्हें सँभालने के लिए।

तुम्हारी दोस्त
अना

❤सोनिया जाधव

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2 Comments

Preeta

13-Feb-2022 10:37 PM

Good story...

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Seema Priyadarshini sahay

07-Feb-2022 04:26 PM

बहुत ही रोचक कहानी है।आपका लेखन स्टाइल बहुत ही बेहतरीन है सोनिया मैम

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