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नज़राना इश्क़ का (भाग : 44)





वह एक विशाल महलनुमा भवन था। गहरे लाल रंग के पत्थरों से बनी यह इमारत सूरज की सुनहली किरणों के साथ मिलकर खिली हुई सी लग रही थी। दीवार पर बेहद सुंदर नक्काशी की गई थी, खिड़की के काँच को भी बड़े करीने से सजाया गया था, खिड़कियां काफी बड़ी नजर आ रही थी। वह करीब एक एकड़ के क्षेत्रफल में फैला हुआ था। उसके ठीक पीछे छोटा सा तालाब था जो वहां के प्राकृतिक सौंदर्य को और बढ़ा रहा था। सामने की ओर एक बगीचा भी था जिसमें विभिन्न प्रकार के वृक्ष लगे हुए थे। इमारत के चारों ओर करीब आठ फूट ऊँची दीवार थी, जिसका गेट सड़क की ओर खुलता था। लोहे का वह विशाल गेट काफी मजबूत और ऊंचा जान पड़ता था। गेट के पास ही करीब दस-बारह गॉर्ड हाथ में बंदूक लिए तैनात थे। 

सबकुछ बिल्कुल ही सामान्य रूप से चल रहा था, सुरक्षित स्थान होने के कारण गार्ड्स को पूरी मुस्तैदी से काम करने की कोई जरूरत नहीं पड़ती थी, क्योंकि इस ओर परिंदे तक भी गलती से भी रुख करके नहीं उड़ते थे। इसी निश्चिंतता के कारण सुबह हो जाने के बाद भी सभी ऊँघते हुए जागने की कोशिश करने के बाद भी आधी नींद में पड़े हुए थे। ठीक उसी वक़्त वातावरण में जोर से हॉर्न का स्वर गूंजा, आधी नींद में होने के बावजूद सभी के हाथ कानों पर चले गए, एक गार्ड हड़बड़ाकर उठते हुए गेट की ओर झांका, बाकियों का ध्यान भी उसी ओर चला गया, गेट के सामने एक नीले रंग की कार थी, जिसका हॉर्न अब तक बन्द नहीं हुआ था।



"ये कौन है रे? हॉर्न बजाना बंद कर…!" एक गॉर्ड गुस्से से गेट खोलता हुआ चिल्लाकर बोला। मगर हॉर्न अब भी लगातार बजे जा रहा था और ड्राइविंग सीट पर कोई नजर भी नहीं आ रहा था।

"हॉर्न बन्द कर…! कही ऐसा न हो कि बड़े साहब की नींद खुल जाए और तुझे जान से हाथ धोना पड़े!" वह गॉर्ड मारे गुस्से के जोर से चिल्लाया। मगर उसकी चीख शायद उस कार के भीतर मौजूद शख्स तक नहीं पहुंच रही थी।

"धांय…!" तभी गोली चलने का धमाका हुआ, एक पल को हॉर्न की आवाज भी दब गई। मगर वह गोली आसमान की ओर चली थी। सामने से एक करीबन साठ-पैंसठ साल का व्यक्ति आता है दिखाई दिया। उसके हाथ में थमी पिस्तौल से धुआं अब भी निकल रहा था इसका मतलब वह धमाका उसी ने किया हुआ था। अब हॉर्न बजना बंद हो चुका था, सभी उस कार के पास पहुँचे, जिसमें सबसे आगे वह वृद्ध व्यक्ति था।

"अंदर जो कोई भी हो उसे बाहर निकालो…!" वह शख्स दहाड़ते हुए आदेश देने के स्वर में बोला। मगर इससे पहले कोई कार को हाथ लगाता उसका गेट अपने आप ही खुल गया। जिसमें से फरी बाहर निकली, उसकी सुर्ख आँखों में अंगार नाच रहे थे, वह अंदर जैसे कोई ज्वालामुखी दबाए हुए थी, वह सख्ती से होंठ भींचे कार का गेट बंद करते हुए उनके सामने आ गयी। वह वृद्ध व्यक्ति यह देखकर बेहद हैरान था, उसे समझ ही नहीं आ रहा था कि उसे खुश होना चाहिए या दुखी, असमंजस का यह भाव उसकी आँखों से झलक रहा था, जिसमें क्रोध की जगह आँसुओ ने घर बनाना शुरू कर दिया था।

"ब...बिट्टू आप…!" उसके काँपते होंठो से बस यही स्वर निकल सके।

"ब..बाबा..!" फरी भी यह देखकर बहुत हैरान थी, उसकी आँखों में क्रोध के साथ थोड़ी खुशी भी जगह बनाने में कामयाब हो रही थी।

"तुम सब जाओ..! यहां कुछ नहीं हुआ है, परेशान होने वाली कोई बात नहीं है।" कहते हुए बाबा ने उन सभी गॉर्डस को भेज दिया।

"आप यहां क्या कर रही हो बिट्टू? आपको यहां नहीं आना चाहिए था।" अपना निचला होंठ चबाते हुए बाबा ने सख्त स्वर में कहा, उनके चेहरे पर परेशानियों के बादल छाने लगे थे। फरी चुपचाप से उनके चेहरे को पढ़ने की कोशिश करती रही, बस एकटक अपने बाबा को देखकर घूरे जा रही थी, उसके चेहरे पर जमाने भर की मासूमियत नजर आ रही थी।

"आप अभी ही यहां से जाओ, जल्दी….! कही ऐसा न हो कि….!" बाबा ने जबड़ा भींचे हुए सख्त स्वर में कहा।

"अपने बिटिया को गले नहीं लगाओगे बाबा?" फरी उनकी बातों को अनसुनी करते हुए उनकी ओर बढ़ी।

"मेरी बिटिया…!" कहते हुए बाबा ने उसे सीने से लगा लिया। बचपन से वह अपने पिता के पितृत्व से, प्रेम से वंचित रही, लेकिन यह छाती हमेशा, हर मौसम में उसके लिए प्रेम बरसाती रही, उसे सींचती रही, फरी उनके सीने पर अपना सिर रखकर कसकर लिपट गयी।

"अब आप यहाँ से जाओ बिट्टू…!" बाबा ने चाहते हुए भी उसे खुद से अलग कर बोले, उनकी आँखों में आँसुओं ने फिर रफ्तार पकड़ ली थी।

"मैं यहां आपको लेने आई हूँ बाबा! बचपन से आपने कभी मेरा हाथ नहीं छोड़ा, आज मैं आपको कैसे छोड़ सकती हूँ?" फरी ने सिर उठाकर उनकी आंखों में देखते हुए कहा।

"अब आपके पास एक परिवार है बिट्टू! आप जाओ… ये बहस करने का सही वक्त नहीं है।" बाबा ने जोर देते हुए कहा।

"मेरे पास परिवार है ना बाबा! पर आपके पास अब भी मेरे अलावा कौन है? बताइए? आपने हर मुसीबत से मुझे बचाया पर अपने दर्द के बारे में भूलकर भी नहीं बताया! अब मैं पहले की तरह नासमझ नहीं रही बाबा…!" फरी ने उनकी आंखों में झांकते हुए दृढ़ स्वर में कहा।

"ये समझाने का समय नहीं है…!" 

"आप बड़े साहब से घबरा रहे हैं ना बाबा! पर आज मैं उनसे छिपने नही उनका सामना करने आई हूँ। जब तक सिर्फ मैं थी, मैं भागती रही, पर अब मेरे पास परिवार है, दोस्त हैं… और सबसे जरूरी बात अब मैं आपको उनके पास नहीं छोड़ सकती!" फरी ने दृढ़तापूर्वक कहा, उसकी बात को सुनकर एक क्षण को बाबा को भी लगा कि आज वो नहीं समझा सकते, मगर वो उसे बड़े साहब के सामने नहीं आने देना चाहते थे।

"बड़े साहब….!"

"मैं उनसे नहीं डरती…! आने दो..!" फरी ने बाबा के शब्दों को काट कर पूर्ववत बड़ी दृढ़ता से कहा।



"तुम्हें मुझसे डरने की कोई जरूरत भी नहीं है बेटा!" उनके पीछे की ओर से एक सौम्य स्वर उभरा।

"मेरी माँ के क़ातिल…!" फरी दाँत पिसती रह गयी।

"तुम चले क्यों नहीं जाते सुखविंदर? इतने प्यार से तुम्हें लेने आयी है।" वह मुस्कुराता हुआ बोला। वह खूब लंबा और तगड़ा दिखाई दे रहा था। आँखों पर गहरे काले रंग का चश्मा, थोड़े से लंबे बाल.. हल्के रंग का कुर्ता पजामा, पैरों में सामान्य चप्पल। वह शख्स और उसकी मुस्कान बेहद रहस्यमयी जान पड़ती थी।

"मुझे अपने इस फरेब में फाँसने की कोशिश न करिये बड़े साहब! ये भोलापन उन्हें दिखायेगा जो आपको जानते ना हो!" फरी ने उसकी ओर देखते हुए दो टूक कहा।

"वाह! अब तू भी दहाड़ने लगी! वैसे भी दहाड़ेगी क्यों नहीं, शेर की बच्ची जो है।" वह मुस्कुराते हुए बोला।

"गलत बड़े साहब! शेर नहीं शेरनी की…! जिसने प्यार की खातिर अपना सबकुछ लूटा दिया और आप एक लुटेरे से ज्यादा कुछ नहीं हो..!" फरी गुस्से से चीखते हुए बोली।

"अरे! ये तो अपने ही बाप पर इल्ज़ाम लगाने लगी, जरा सा ढील क्या दे दी, मेरी बिल्ली मुझी से म्याऊँ करने लगी।" वह दाँत पीसते हुए बोला। 

"इल्ज़ाम नहीं बड़े साहब, आपके काले कारनामों की तो फेहरिस्त इतनी लंबी होगी कि आपका ये महल उसमें चार बार लपेटा जा सकेगा। मैं जब तक अकेली रही, चुप थी। अब कहती हूँ मुझसे और मेरी फैमिली से दूर रहो… वरना…!" उसकी आँखों में अंगार धधकने लगे मगर इससे अभिनव राजपूत की मुस्कान कम होने के बजाए और गहरी होती चली गई।

"एकदम नासमझ और नादान..! बिल्कुल अपनी माँ की तरह…! तुम्हें क्या लगता है मैंने किया ये सब? नहीं! ये उसकी ख्वाहिश थी कि मैं बहुत बड़ा आदमी बनूँ, मैं तो बस उसकी ख्वाहिश पूरी कर रहा हूँ।" उसके होंठो पर बेहद कुटिल मुस्कान नृत्य कर रही थी। उसके इन शब्दों से फरी को गहरा धक्का लगा। "मैं भी प्यार करता था उससे! इसलिए उसके जाने के बाद दूसरी शादी नहीं की, मैंने हमेशा चाहा कि तुम मुझे एक बार अपना पापा कहकर पुकारो पर तुम भी उसकी तरह जिद्दी हो…!" उसके होंठो पर व्यंग्य के भाव उभरे, यह कटाक्ष फरी के हृदय को छील रहा था। वह चुपचाप उस शख्स को देखती रही, जिससे उसने उम्रभर सिर्फ और सिर्फ नफरत की थी।

"तुम बेशक मुझसे नफरत कर सकती हो, मैंने एक बेइन्तहा प्यार करने वाले बाप से उसकी बेटी छीनी थी, उसके दिल से निकली बददुआ तो मुझे लगनी ही थी। जब श्रीराम के पिता दशरथ उस श्राप को नहीं टाल सके तो भला मैं चीज ही क्या हूँ।" अभिनव ने सिर नीचे झुकाकर कहा, ना जाने क्यों फरी का दिल उसकी बातों पर यकीन कर लेने का कर रहा था, मगर कहीं न कही वह खुद ही इसका विरोध कर रही थी, उसके होंठों से बोल नहीं फूट पा रहे थे।

"मैं ये मानता हूँ मैं एक अच्छा पति और पिता नहीं बन सका, जिस समय तुम दोनों को मेरी जरूरत थी मैं हर बार तुम्हारें पास न था। पर ये मेरी गलती से ज्यादा मजबूरी थी, मैं तुम्हारी माँ की अमानत को माटी में नहीं मिला सकता था, उसने जो हिस्सा मुझे सौंपा था मुझे उसे उसका हजार गुना लौटाना था।" अभिनव ने अपना आखिरी दांव फेका। उसकी आँखों में आँसू थे।


"झूठ बोलना बंद करिये बड़े साहब! आपने आज तक जो भी किया सिर्फ खुद के लिए, एक पल भी दूसरे के लिए नहीं सोचा। सारी जिंदगी मुझे बस भगाते रहे, तकलीफ देते रहे और कहते हो काबिल नहीं बन सका! मुझे घिन्न आती है खुद पर कि मैं एक ऐसे गिरे हुए नीच इंसान की बेटी हूँ।" गुस्से से फट पड़ी वो, उसकी आँखों से आँसुओ की धार निकलकर धरती को सींचने लगी, उसकी यह दशा देखकर बड़े से बड़ा पत्थरदिल भी द्रवित हो जाता।

"मुझे माफ़ करना बेटा! मैं शायद वैसा बाप नहीं बन पाया जैसा तुमने चाहा, पर अब मैं कोशिश करूंगा। मैं वादा करता हूँ अब के बाद तभी तुम्हारें रास्ते में आऊंगा जब तुम्हारे दिल में मेरे लिए थोड़ी सी भी जगह बन सकेगी। अब से तुम्हें मेरी ओर से कोई परेशानी नहीं होगी,  तुम चाहती तो पहले भी आ सकती थी, मैं बस तुम्हें एक झलक देखना चाहता था। और तुम जब चाहो यहां आ सकती हो, ये तुम्हारा अपना घर है…!" अभिनव की आंखों में आँसू थे, फिर भी वह मुस्कुराते हुए बोला।

"आप हर चीज को अपने कदमों में झुकाना चाहते हैं बड़े साहब, ये मगरमच्छ के आँसू निकालना बंद कीजिए। यहां मैं आपसे विनती करने नहीं, बल्कि ये बताने आयी हूँ कि एक भी इंसान जिसे मैं जानती हूँ, मानती हूँ और चाहती हूँ, उसे एक खरोंच भी पहुँची तो अंजाम अच्छा नहीं होगा।" फरी शेरनी के मानिंद दहाड़ते हुए बोली।

"अब तुम जो समझो..! मैंने तो बस वही बताया जो सच था।" अभिनव उसकी ओर देखता हुआ बोला।

"और सच यही है! आप बस दौलत के हैं और किसी के नहीं…!" फरी जबड़ा भींचते हुए बोली।

"अब तुम ज्यादा बोल रही हो लड़की! बड़े साहब को एक शब्द भी कुछ और बोला न…" एक गॉर्ड फरी पर भड़कते हुए गुस्से से चिल्लाकर बोला।

"तुम चुप…!" अभिनव ने उसे चुप रहने का।इशारा किया। "मैं बात कर रहा हूँ न! और हमेशा याद रखना मेरी बेटी है वो, मालकिन है तुम सबकी…!" अभिनव गुस्से से दांत भींचते हुए कहा। "घर के अंदर तो तुम आओगी नहीं, सुखविंदर…! तुम इसके साथ जाओ, हमेशा की तरह ख्याल रखना।" फरी को कहते हुए वह बाबा की ओर पलटा। बाबा तब से बस उसे देखे जा रहे थे।

"आप रोकोगे तो भी मैं नहीं रुकूँगी बड़े साहब! चलो बाबा..!" कहते हुए वह बाबा का हाथ पकड़कर कार की ओर बढ़ी, अभिनव ने गॉर्डस को वापिस जाने का इशारा किया और वह तब तक गेट पर खड़ा कार देखता रहा जबतक वह उसकी आँखों से ओझल नहीं हो गयी, फिर वह भी अंदर चला गया। उसके चेहरे पर हल्की सी चमक नजर आ रही थी।


इधर कार में….!

"आपको समझ नहीं आता बिट्टू…!" बाबा ने चिंता जताते हुए कहा।

"कब से तो समझती रही, समझाती रही न खुद को, क्या फायदा हुआ?" फरी ने बिना उनकी ओर।देखे कार ड्राइव करते हुए कहा।

"अगर कुछ हो जाता तो..?" बाबा ने अपनी चिंता जाहिर की।

"कुछ हुआ तो नहीं ना बाबा! अब बेकार में परेशान होना बंद करिये..! अभी घर चलकर आपको अपने हाथ से बना गर्मागर्म परांठे खिलाऊंगी!" फरी ने धीरे से मुस्कराते हुए कहा।

"इस गर्मी में गर्मागर्म खिला के इस बुड्ढे की जान लोगी क्या…!" बाबा ने हंसते हुए कहा।

"धत्त…! आप भी ना..!" फरी रूठते हुए बोली।

"पिछले कई सालों में आज पहली बार बड़े साहब ने किसी से खड़े होकर किसी से इतनी देर बात की..!" बाबा ने शांत स्वर में कहा।

"हूँ…!" फरी सिर हिलाते हुए कार चलाती रही।


क्रमशः….


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2 Comments

सिया पंडित

21-Feb-2022 04:45 PM

गुड स्टोरी

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Thank you siya jii🥰

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