खामोशी
खामोशी
खामोश रातों में दिल में मच रही हलचल।
बातें कर रहा कोई बिन किसी आवाज़ के।
खामोश हो गए हम आपसे दिल लगा के।
ग़ज़ब किया आपने मुहब्बत के फूल खिला के।
दिन भी खामोश रहा हो गई खामोश रात भी।
आंखों में ख्वाब आए वो भी झिलमिला के।
तस्सवुर में आपके खामोश बन बैठे रहे।
लबों से आपके निकले जो सुर गुनगना के।
खमोश दिल के जज़्बात भी खामोश हुए।
देखा जब खुद को रुसवा होते बिन बात के।
तन्हाई के आलम में यादों को लिए बैठे हैं।
जैसे दुल्हन है ये साथी जन्नत की सफ़र के।
सारी फिज़ा भी ओढ़े है खामोशी का आलम।
हमदर्द है वो भी मेरे खामोशी भरे अंदाज़ के।
स्नेहलता पाण्डेय 'स्नेह'
नई दिल्ली
Zulfikar ali
18-Jun-2021 09:51 AM
बेहतरीन 👌
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Aliya khan
17-Jun-2021 08:07 PM
जवाब नहीं आपकी लिखनी का
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ऋषभ दिव्येन्द्र
17-Jun-2021 07:36 PM
बेहद ही शानदार जानदार रचना 👌👌
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