Lekhika Ranchi

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मुंशी प्रेमचंद ः निर्मला


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‘बच्चा, मेरी माता भी मुझे तीन साल का छोड़कर परलोक सिधारी थीं। तभी से मातृ-विहीन बालकों को देखता हूं तो मेरा हृदय फटने लगता हैं।’
सियाराम ने पूछा- आपके पिताजी ने भी तो दूसरा विवाह कर लिया था?
साधु- हां, बच्चा, नहीं तो आज साधु क्यों होता? पहले तो पिताजी विवाह न करते थे। मुझे बहुत प्यार करते थे, फिर न जाने क्यों मन बदल गया, विवाह कर लिया। साधु हूं, कटु वचन मुंह से नहीं निकालना चाहिए, पर मेरी विमात जितनी ही सुन्दर थीं, उतनी ही कठोर थीं। मुझे दिन-दिन-भर खाने को न देतीं, रोता तो मारतीं। पिताजी की आंखें भी फिर गयीं। उन्हें मेरी सूरत से घृणा होने लगी। मेरा रोना सुनकर मुझे पीटने लगते। अन्त को मैं एक दिन घर से निकल खड़ा हुआ।
सियाराम के मन में भी घर से निकल भागने का विचार कई बार हुआ था। इस समय भी उसके मन में यही विचार उठ रहा था। बड़ी उत्सुकता से बोला-घर से निकलकर आप कहां गये?
बाबाजी ने हंसकर कहा- उसी दिन मेरे सारे कष्टों का अन्त हो गया जिस दिन घर के मोह-बन्धन से छूटा और भय मन से निकला, उसी दिन मानो मेरा उद्वार हो गया। दिन भर मैं एक पुल के नीचे बैठा रहा। संध्या समय मुझे एक महात्मा मिल गये। उनका स्वामी परमानन्दजी था। वे बाल-ब्रह्रचारी थे। मुझ पर उन्होंने दया की और अपने साथ रख लिया। उनके साथ रख लिया। उनके साथ मैं देश-देशान्तरों में घूमने लगा। वह बड़े अच्छे योगी थे। मुझे भी उन्होंने योग-विद्या सिखाई। अब तो मेरे को इतना अभ्यास हो येगया है कि जब इच्छा होती है, माताजी के दर्शन कर लेता हूं, उनसे बात कर लेता हूं।
सियाराम ने विस्फारित नेत्रों से देखकर पूछा- आपकी माता का तो देहान्त हो चुका था?
साधु- तो क्या हुआ बच्च, योग-विद्या में वह शक्ति है कि जिस मृत-आत्म को चाहे, बुला ले।
सियाराम- मैं योग-विद्या सीख् लूं, तो मुझे भी माताजी के दर्शन होंगे?
साधु- अवश्य, अभ्यास से सब कुछ हो सकता है। हां, योग्य गुरु चाहिए। योग से बड़ी-बड़ी सिद्वियां प्राप्त हो सकती हैं। जितना धन चाहो, पल-मात्र में मंगा सकते हो। कैसी ही बीमारी हो, उसकी औषधि अता सकते हो।
सियाराम- आपका स्थान कहां है?
साधु- बच्चा, मेरे को स्थान कहीं नहीं है। देश-देशान्तरों से रमता फिरता हूं। अच्छा, बच्चा अब तुम जाओ, मै। जरा स्नान-ध्ययान करने जाऊंगा।
सियाराम- चलिए मैं भी उसी तरफ चलता हूं। आपके दर्शन से जी नहीं भरा।
साधु- नहीं बच्चा, तुम्हें पाठशाला जाने की देरी हो रही है।
सियाराम- फिर आपके दर्शन कब होंगे?
साधु- कभी आ जाऊंगा बच्चा, तुम्हारा घर कहां है?
सियाराम प्रसन्न होकर बोला- चलिएगा मेरे घर? बहुत नजदीक है। आपकी बड़ी कृपा होगी।
सियाराम कदम बढ़ाकर आगे-आगे चलने लगा। इतना प्रसन्न था, मानो सोने की गठरी लिए जाता हो। घर के सामने पहुंचकर बोला- आइए, बैठिए कुछ देर।
साधु- नहीं बच्चा, बैठूंगा नहीं। फिर कल-परसों किसी समय आ जाऊंगा। यही तुम्हारा घर है?
सियाराम- कल किस वक्त आइयेगा?
साधु- निश्चय नहीं कह सकता। किसी समय आ जाऊंगा।
साधु आगे बढ़े, तो थोड़ी ही दूर पर उन्हें एक दूसरा साधु मिला। उसका नाम था हरिहरानन्द।
परमानन्द से पूछा- कहां-कहां की सैर की? कोई शिकार फंसा?
हरिहरानन्द- इधरा चारों तरफ घूम आया, कोई शिकार न मिलां एकाध मिला भी, तो मेरी हंसी उड़ाने लगा।
परमानन्द- मुझे तो एक मिलता हुआ जान पड़ता है! फंस जाये तो जानूं।
हरिहरानन्द- तुम यों ही कहा करते हो। जो आता है, दो-एक दिन के बाद निकल भागता है।
परमानन्द- अबकी न भागेगा, देख लेना। इसकी मां मर गयी है। बाप ने दूसरा विवाह कर लिया है। मां भी सताया करती है। घर से ऊबा हुआ है।
हरिहरानन्द- खूब अच्छी तरह। यही तरकीब सबसे अच्छी है। पहले इसका पता लगा लेना चाहिए कि मुहल्ले में किन-किन घरों में विमाताएं हैं? उन्हीं घरों में फन्दा डालना चाहिए।

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