Lekhika Ranchi

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प्रेमा--मुंशी प्रेमचंद



कुछ देर तक तो पूर्णा सर नीचा किये खड़ी रही। यकायक उसको अपने गुँथे केश की सुधि आ गयी और उसने झट लजाकर सर और भी निहुरा लिया, घूँघट को बढ़ाकर चेहरा छिपा लिया। और यह खयाल करके कि शायद बाबू साहब इस बनाव सिंगार से नाराज हों वह बहुत ही भोलेपन के साथ बोली—मैं क्या करु, मैं तो प्रेमा के घर गयी थी। उन्होंने हठ करके सर में मे तेल डालकर बाल गूँथ दिये। मैं कल सब बाल कटवा डालूँगी। यह कहते-कहते उसकी ऑंखों में ऑंसू भर आये।
उसके बनाव सिंगार ने अमृतराय पर पहले ही जादू चलाया था। अब इस भोलेपन ने और लुभा लिया। जवाब दिया—नहीं—नहीं, तुम्हें कसम है, ऐसा हरगिज न करना। मैं बहुत खुश हूँ कि तुम्हारी सखी ने तुम्हारे ऊपर यह कृपा की। अगर वह यहॉँ इस समय होती तो इसके निहोरे में मैं उनको धन्यवाद देता।
पूर्णा पढ़ी-लिखी औरत थी। इस इशारे को समझ गयी और झेपेर गर्दन नीचे कर ली। बाबू अमृतराय दिल में डर रहे थे कि कहीं इस छेड़ पर यह देवी रुष्ट न हो जाए। नहीं तो फिर मनाना कठिन हो जाएगा। मगर जब उसे मुसकराकर गर्दन नीची करते देखा तो और भी ढिठाई करने का साहस हुआ। बोले—मैं तो समझता था प्रेमा मुझे भूल होगी। मगर मालूम होता है कि अभी तक मुझ पर कुछ-कुछ स्नेह बाक़ी है।
अब की पूर्णा ने गर्दन उठायी और अमृतराय के चेहरे पर ऑंखें जमाकर बोली, जैसे कोई वकील किसी दुखीयारे के लिए न्याधीश से अपील करता हो-बाबू साहब, आपका केवल इतना समझना कि प्रेमा आपको भूल गयी होगी, उन पर बड़ा भारी आपेक्ष है। प्रेमा का प्रेम आपके निमित्त सच्चा है। आज उनकी दशा देखकर मैं अपनी विपत्ति भूल गयी। वह गल कर आधी हो गयी हैं। महीनों से खाना-पीना नामात्र है। सारे दिन आनी कोठरी में पड़े-पड़े रोय करती हैं। घरवाले लाख-लाख समझाते हैं मगर नहीं मानतीं। आज तो उन्होंने आपका नाम लेकर कहा-सखी अगर चेरी बनूँगी तो उन्हीं की।
यह समाचार सुनकर अमृतराय कुछ उदास हो गये। यह अग्नि जो कलेजे में सुलग रही थी और जिसको उन्होंने सामाजिक सुधार के राख तले दबा रक्खा था इस समय क्षण भर के लिए धधक उठी, जी बेचैन होने लगा, दिल उकसाने लगा कि मुंशी बदरीप्रसाद का घर दूर नहीं है। दम भर के लिए चलो। अभी सब काम हुआ जाता है। मगर फिर देशहित के उत्साह ने दिल को रोका। बोले—पूर्णा, तुम जानती हो कि मुझे प्रेमा से कितनी मुहब्बत थी। चार वर्ष तक मैं दिल में उनकी पूजा करता रहा। मगर मुंशी बदरप्रसाद ने मेरी दिनों की बँधी हुई आस केवल इस बात पर तोड़ दी कि मैं सामाजिक सुधार का पक्षपाती हो गया। आखिर मैंने भी रो-रोकर उस आग को बुझाया और अब तो दिल एक दूसरी ही देवी की उपासना करने लगा है। अगर यह आशा भी यों ही टूट गयी तो सत्य मानो, बिना ब्याह ही रहूँगा।
पूर्णा का अब तक यह ख़याल था कि बाबू अमृतराय प्रेमा से ब्याह करेंगे। मगर अब तो उसको मालूम हुआ कि उनका ब्याह कहीं और लग रहा है तब उसको कुछ आश्चर्य हुआ। दिल से बातें करने लगी। प्यारी प्रेमा, क्या तेरी प्रीति का ऐसा दुखदायी परिणाम होगा। तेरो मॉँ-बाप, भाई-बंद तेरी जान के ग्राह हो रहे हैं। यह बेचारा तो अभी तक तुझ पर जान देता हैं। चाहे वह अपने मुँह से कुछ भी न कहे, मगर मेरा दिल गवाही देता है कि तेरी मुहब्बत उसके रोम-रोम में व्याप रही है। मगर जब तेरे मिलने की कोई आशा ही न हो तो बेचारी क्या करे मजबूर होकर कहीं और ब्याह करेगा। इसमें सका क्या दोष है। मन में इस तरह विचार कर बोली-बाबू साहब, आपको अधिकार है जहॉँ चाहो संबंध करो। मगर मैं मो यही कहूँगी कि अगर इस शहर में आपके जोड़ की कोई है तो वही प्रमा है।
अमृत०—यह क्यों नहीं कहतीं कि यहॉँ उनके योग्य कोई वर नहीं, इसीलिए तो मुंशी बदरीप्रसाद ने मुझे छुटकार किया।
पूर्णा—यह आप कैसी बात कहते है। प्रेमा और आपका जोड़ ईश्वर ने अपने हाथ से बनाया है।
अमृत०—जब उनके योग्य मैं था। अब नहीं हूँ। पूर्णा—अच्छा आजकल किसके यहॉँ बातचीत हो रही है?
अमृत०—(मुस्कराकर) नाम अभी नहीं बताऊँगा। बातचीत तो हो रही है। मगर अभी कोई पक्की उम्मेदे नहीं हैं।
पूर्णा—वाह ऐसा भी कहीं हो सकता है? यहॉँ ऐसा कौन रईस है जो आपसे नाता करने में अपनी बड़ाई न समझता हो।
अमृत०—नहीं कुछ बात ही ऐसी आ पड़ी है।
पूर्णा—अगर मुझसे कोई काम हो सके तो मैं करने को तैयार हूँ। जो काम मेरे योग्य हो बता दीजिए।
अमृत—(मुस्कराकर)तुम्हारी मरजी बिना तो वह काम कभी पूरा हो ही नही सकता। तुम चाहो तो बहुत जल्द मेरा घर बस सकता है।
पूर्णा बहुत प्रसन्न हुई कि मैं भी अब इनके कुछ काम आ सकूँगी। उसकी समझ में इस वाक्य के अर्थ नहीं आये कि ‘तुम्हारी मर्जी बिना तो वह काम पूरा हो ही नहीं सकता। उसने समझा कि शायद मुझसे यही कहेंगे कि जा के लड़की को देख आवे। छ: महीने के अन्दर ही अन्दर वह इसका अभिप्राय भली भॉँति समझ गयी समझ गयी।
बाबू अमृतराय कुछ देर तक यहॉँ और बैठे। उनकी ऑंखें आज इधर-उधार से घूम कर आतीं और पूर्णा के चेहरे पर गड़ जाती। वह कनख्यि से उनकी ओर ताकती तो उन्हें अपनी तरफ़ ताकते पाती। आखिर वह उठे और चलते समय बोले—पूर्णा, यह गजरा आज तुम्हारे वास्ते लाया हूँ। देखो इसमें से कैसे सुगन्ध उड़ रही है।
पूर्णा भौयचक हो गयी। यह आज अनोखी बात कैसी एक मिनट तक तो वह इस सोच विचार में थी कि लूँ या न लूँ या न लूँ। उन गजरों का ध्यान आया जो उसने अपने पति के लिए होली के दिन बनये थे। फिर की कलियों का खयाल आया। उसने इरादा किया मैं न लूँगी। जबान ने कहा—मैं इसे लेकर क्या करूँगी, मगर हाथ आप ही आप बढ़ गया। बाबू साहब ने खुश होकर गजरा उसके हाथ में पिन्हाया, उसको खूब नजर भरकर देखा। फिर बाहर निकल आये और पैरगाड़ी पर सवार हो रवाना हो गये। पूर्णा कई मिनट तक सन्नाटे में खड़ी रही। वह सोचती थी कि मैंने तो गजरा लेने से इनकार किया था। फिर यह मेरे हाथ में कैसे आ गया। जी चाह कि फेंक दे। मगर फिर यह ख्याल पलट गया और उसने गज़रे को हाथ में पहिन लिया। हाय उस समय भी भोली-भाली पूर्णा के समझ में न आया कि इस जुमले का क्या मतलब है कि तुम चाहो तो बहुत जल्द मेरा घर बस सकता है।
उधर प्रेमा महताबी पर टहल रही थी। उसने बाबू साहब को आते देखा था।उनकी सज-धज उसकी ऑंखों में खुब गयी थी। उसने उन्हें कभी इस बनाव के साथ नहीं देखा था। वह सोच रही थी कि आज इनके हाथ में गजरा क्यों है । उसकी ऑंखें पूर्णा के घर की तरफ़ लगी हुई थीं। उसका जी झुँझलाता था कि वह आज इतनी देर क्यों लगा रहे है? एकाएक पैरगाड़ी दिखाई दी। उसने फिर बाबू साहब को देखा। चेहरा खिला हुआ था। कलाइयों पर नज़र पड़ी गयी, हँय वह गजरा क्या हो गया?

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