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नफरत

नफरत

 

दीवारें नफरत के घरोंदों की

अक्सर बनी होती हैं

उन शब्दों की ईंटों से

 

जो पकने से पहले ही गिर जाती हैं

किसी की उम्मीदों के बहते पानी में।

 

उछलती हुई बूँदें जब बिखर जाती हैं

नाकामयाबी की सड़क पे

और मिल के मिट्टी से तब्दील हो जाती हैं कीचड़ में।

विक्षिप्त दिमाग सी कीचड़ मिलकर अधपकी ईंट से

बना देती है नफरत के पक्के घर।

 

सुनो, तुम जब भी जाओ वहां साथ ले जाना

बर्फ सा ठंडा दिमाग,

क्योंकि वो ईंटें आज भी गर्म हैं।

और ले जाना एक साफ़ आईना,

ताकि तुम्हें याद रहे तुम्हारा अपना अक्स।

 

हाँ! मत भूलना अपने गुलाब से दिल को,

वहां की बू तुम सह नहीं पाओगे।

 

और क्या याद दिलाऊं?

कि छोड़ देना यहीं पे दीवारों को तोड़ने का सामान,

टूटकर पक जाती हैं ये कच्ची दीवारें।

 

बस! तुम चले जाना...

खड़े हो जाना... उन्हें देखना...

और पुकारना उम्मीद के पानी को...

देखना! ढह जायेगा नफरत का पूरा घर,

बह जायेगा उसी पानी में।

तुम देखना... देखोगे ना!

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2 Comments

Seema Priyadarshini sahay

01-Mar-2022 06:21 PM

वाह बहुत खूबसूरत

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Dr. Arpita Agrawal

28-Feb-2022 09:42 PM

अति सुन्दर

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