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विदाई


जिसके आने से घर गुलशन सा महके।
जिसकी किलकारी सुन के पंछी चहके।
जिसके आते ही पत्थर भी देव बने।
जिसके सपनों की खातिर यह जेब बने।

जिसने जीवन को प्रबंधन पहना दी।
जिसने मांओं के आंचल को गहना दी।
जिसे देखकर पापा को अरमान मिला।
जिसे देखकर माता को सम्मान मिला।

पापा के अरमानों की जो परी हुई।
वो नाज़ुक सी प्यारी गुड़ियां बड़ी हुई।
फिर यथार्थ को करना का है भावों का दोहन।
और रीतियां कब चाहेगी नव आरोहण।

जिसे देखकर सपनों में तरुणई है।
आज उसी बेटी की  हुई  सगाई है।
क्या यथार्थ के तथ्यों को बेमोल कहूं?
बिटिया अपनी होकर यहां पराई है।

वो शक्ति की रूप सकल सृष्टि की जननी।
वो ममत्व की अमृत वृष्टि की जननी।
आज चली है डोली में अपने घर को।
आज करेगी पूर्ण कदाचित घर वर को।।

आज उसे एहसास हुआ माया से ऊपर।
उससे ही संतूलन है इस भूमि पर।
आज यहां मां के आंचल से दूर हुई।
और पति के आंखों की वो नूर हुई।

भावों पर यह रीतों की प्रभुताई है।
और कथानक रीतों की अगुवाई है।
एक तरफ़ बंधन प्रणय के डोरों की।
एक तरफ़ बिटिया की हुई विदाई है।

दीपक झा 



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5 Comments

Sudhanshu pabdey

02-Mar-2022 07:39 AM

Very nice

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Seema Priyadarshini sahay

01-Mar-2022 06:03 PM

बहुत खूबसूरत

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Swati chourasia

01-Mar-2022 04:03 PM

बहुत ही खूबसूरत रचना 👌

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