सफर-- मेरे प्यार का
भाग--9
नागार्जुन अपनी बड़ी सी कार में शैली को बिठाकर उसके घर ले जाता है।
आश्चर्य यह था कि वह वहाँ उसके मातापिता से भी मिलता है।
शैली की मम्मी शारदा जी नागार्जुन से कहती हैं
-- शैली के पिता के एक्सीडेंट के कारण ही शैली को रंगमंच में काम करना पड़ा।उसके पिता इन नाटकवाटक के एकदम खिलाफ रहते हैं।
शैली यह सुनकर अचानक बोल पड़ती है--मम्मी,देखो न ये भी ठीक नहीं हुआ..अब मेरे पैरों में मोच आ गई है तो मुझे आगे पैसे तो नहीं मिलेंगे ना..अब कैसे होगा?,,
उसकी बात सुनकर नागार्जुन बोला--,,अच्छा,ऐसा है तो आप मेरे ऑफिस ज्वाईन कर लीजिए,जब आपके पैर सही हो जाए तो आप फिर से मंचन शुरू कर लीजिएगा।,,
शारदा जी खुशी से फूले नहीं समाई।उसी समय वह उसे दुआऐं देने लगीं।
शैली भी नागार्जुन का ये ऑफर पाकर बहुत ही अधिक खुश हो गई।
जाते जाते नागार्जुन बोला--,,पहले आप अपनी सेहत का ध्यान रखिए फिर आफिस आइए।,,
वह अपनी सेक्रेटरी का नंबर देकर चला जाता है।
शैली अजीब सी मनोस्थिति में थी।उसे नहीं समझ में आ रहा था कि कोई इतना धनवान व्यक्ति किसी की मदद तो कर सकता है पर इतना अधिक..कैसे..कर सकता है और क्यों करेगा भला?
मम्मी रसोई में थी।शैली अपनी बात अवंतिका को जरूर बतलाती थी।
उसे फोन पर यह सारी घटना बतलाई तो सब बातें सुनकर वह बोली--
,,यार,इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है भला?..,,.काश कि मेरे पैर में मोच आया होता..!,,वह हँसने लगती है।
शैली--,,यार,मैं तुझसे बस सलाह ले रही हूँ और तू है कि..!,,
अवंतिका--,,देख शैली , जब पहाड़ खुद घर चलकर आया है ना तो उसमें घर बनाने में क्या हर्ज है लेकिन संभलकर रहना..पता नहीं इन बड़े लोगों के माईंड में क्या छिपा होता है,पता ही नहीं चलता..!
शैली--ह्मम्म..तू बिल्कुल सही कह रही है अवंतिका।क्या यह हैंडसम ब्वाय सचमुच ही अच्छा है या फिर ड्रामा कर रहा है ?,,
अवंतिका--,,देख यार,इतना निगेटिव मत ले।चाहे तो तेरे जैसी दस उठा ले।हो सकता है कि तेरी मदद करना चाहता हो..बी पौजिटिव..।अभी तो तू बस आराम कर..।
एक दो दिन बाद फिर ऑफिस ज्वाइन कर लेना।,,
शैली-हाँ ठीक है।फिर फोन रख देती है।वह अपने भाई को फोन कर बताती है तो वह बोलता है
,,शैली,बहुतहीअच्छा है ये।तुरंत ही ज्वाइन कर लो।ये नाटक,ड्रामा ये सब ठीक नहीं होता..दो चार दिनों तक ठीक रहता है फिर बहुत मुश्किल होता है।,,
शारदा जी उसी समय कमरे में आ जाती हैं और शैली को अभिनव से बातें करते देखकर रुक जाती हैं और उनदोनों की बातें सुनने लगती हैं।
वह शैली से कहती हैं
--,,शैली,ये नाटक वाटक दो चार दिनों के बस चोंचले हैं।सही तो वह होता है जिसमें स्थिरता होती है और फिर बेटी तुम्हारे पापा को यह सब बिल्कुल भी पसंद नहीं था।वह अभी इस स्थिति में नहीं हैं कि कुछ कर सकें..लेकिन उनकी पसंद नापसंदगी का खयाल तो हमें रखना ही चाहिए।,,
शैली--,,पर मम्मी..वो...!,,
शारदाजी--,,पर..वर कुछ नहीं...अब तू उस नील रंजन को कह दे किअब थियेटर नहीं करेगी बस...!,
शैली--,,अरे मम्मी,सुनो तो सही..!,पापा के ऑपरेशन के लिए मैने एडवांस ले लिया था ना तो फिर मैं कैसे छोड़ सकती हूँ मंचन को.. पर हाँ अगर तुमलोगों को पसंद नहीं है तो फिर ..देखती हूँ..पर कर्ज के रुपये तो लौटाने ही होंगे ना। शैली ने अनमने मन से कहा।
शारदाजी--,,हाँ बेटी,वो तो सही है।वक्त पर नीलरंजन ने मदद कर दिया नहीं तो..।
वैसे भी शैली मोच के दर्द से गुजर रही थी,इसलिए वह अब दवा लेकर अपने कमरे में चली गई।
***
स्वरचित और मौलिक
सीमा...✍️
©®
Arshi khan
03-Mar-2022 09:18 PM
Bahut khoob
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