Sangeeta singh

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लौट आया बचपन

आज उम्र के इस पड़ाव में एकदम अकेला ,अपनी अकड़ के कारण सबने मेरा साथ छोड़ दिया ।पत्नी ही थी,चाहते ना चाहते जब तक निभा सकी उसने साथ निभाया ,अब वो भी साथ छोड़ बहुत दूर चली गई।
पार्क में बैठा ,बच्चों को देखकर मुझे पार्थ की याद आ गई,पार्थ मेरे अनुज का बेटा।
पत्नी कहती तुम्हारा पोता एक दम तुम्हारी तरह दिखता है,लेकिन मैने कभी उसको जी भर कर नहीं देखा।
अनुज मेरा इकलौता बेटा ,मैने उसपर कभी ध्यान नहीं दिया ,बस मैं इस घमंड में रहता कि मैं कमा रहा हूं ,सबका पेट पाल रहा हूं,मेरे बिना इनका क्या वजूद ।राधिका  अकेली ही  अनुज की परवरिश करती , मैं कभी कभार ही उससे प्यार से बात करता ,मुझे उसकी शरारत हमेशा गलती ही लगती जिसके लिए उसे सजा मिलती ही मिलती साथ में उसकी मां ,यानी मेरी पत्नी राधिका को भी।
आज जब खुद को उनकी जगह रखकर देखता हूं तो मुझे बड़ी आत्मग्लानि होती है ,मैने कभी अनुज को उसका सुनहरा बचपन नहीं दिया जिसका हर बच्चा हकदार होता है।वह डरा सहमा रहा ,इसी में मुझे अपनी जीत दिखती थी।

अनुज ने जी जान से पढ़ाई की,राधिका हर कदम पर उसका साथ देती रही। 
नौकरी के लिए उसने खूब मेहनत की ,और अंत में उसकी नौकरी बैंक में लग गई।अब मैं उसे अपना बेटा कहने में बहुत गर्व महसूस करता ,लोगों से अपने अनुशासन और मेहनत का परिणाम बताता।
लड़की वाले हमारे घर आने लगे।मैने एक को अपनी जबान भी दे दी।लेकिन मैं अनुज से कुछ बात करता कि ,राधिका ने बताया कि अनुज अपने साथ की बैंक में काम करने वाली लड़की से प्यार करता है ,और शादी भी उसी से करेगा।

मेरा अहंकार फिर एक बार हावी हो गया,मैने फरमान जारी कर दिया कि मेरे घर में रहना है तो मेरे नियम कानून मानने होंगे , वरना दरवाजा खुला है,जाने के लिए।
अनुज चला गया। उस दिन एक बार मैं हारा,लेकिन मेरे अंदर के  अहंकार ने  मुझे आगे बढ़ने नहीं दिया।
अनुज और श्रेया ने कोर्ट मैरिज कर ली,श्रीमती जी जब शादी से लौट कर आई तो मैं गुर्रा रहा था,"हो आई अपने लाडले की शादी से, दिमाग पर पत्थर पड़ा था, मैं कैसे धूमधाम से शादी करता कि लोग देखते रह जाते ,और याद करते की शर्मा जी ने कितनी शान से शादी की।"लेकिन उसने तो मुझे कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा।
तुमने ही उसे हर समय शह दी इसी कारण अपने मन का हो गया है_मैने खूब खरी खोटी सुनाई ।

राधिका के मन में बहुत कुछ था बोलने को ,वह सालों से अपने बेटे के प्रति हुए अन्याय को देखती और खून की घूंट पी कर रह रही थी,अब  सब कुछ उसके बर्दाश्त से बाहर हो रहा था, उस दिन वह चीखी एक एक दिन की तड़प,कुंठा,को उसने बयां किया।
मैं  सुनता  रहा लेकिन मुझे  अपनी गलती कही से नहीं लगी।
शादी के दो साल हो गए,अनुज और श्रेया के घर नन्हें मेहमान का आगमन हुआ,राधिका ने मुझसे बहुत कहा चलने को लेकिन  मैं टस से मस नहीं हुए।
राधिका बेटे बहू से मिलने जाती,6,7 दिन से ज्यादा रह नहीं पाती क्योंकि मुझे  राधिका की जरूरत रहती ,लेकिन राधिका अंदर से बहुत टूट चुकी थी,वह घुट रही थी।इसी गम को सहते सहते एक दिन  उसे ब्रेन हैमरेज हो गया और  राधिका चल बसी ।
, उस दिन अनुज और श्रेया की जैसे दुनिया लुट गई थी ,दौड़े दौड़े मां के अंतिम संस्कार में आए, मै  तटस्थ ही रहा  ,लेकिन पहली बार  मैंने  पार्थ को देखा।
2 साल का हो गया था,बहुत प्यारा ।उसे देख मेरा  मन पिघल रहा  था ,सही में उसका चौड़ा माथा,आंखें सब मुझसे  मिल रही थीं।

मै पार्थ को गोदी में उठाना चाहता था ,सीने से लगाना चाहता था ,लेकिन अनुज और श्रेया उसे मेरे पास आने नहीं देते ।
क्योंकि अनुज हमेशा से अपनी मां की मृत्यु का जिम्मेदार मुझे ही मानता था।
गलती से भी अगर 
।तेरहवीं तक किसी तरह अनुज और श्रेया रहे ,लेकिन इस बीच मैं तड़पता रहा पोते को खिलाने को ,लेकिन अपने  अहंकार को मैने सर्वोपरि रखा,ये न कह सका , कि बहू पार्थ को दे दे,उसे पार्क में ले जाऊं ,उसे खेला लाऊं।


तेरहवीं के बाद अनुज , श्रेया,पार्थ चले गए।घर काटने को दौड़ रहा था ,राधिका के रहने पर कभी अकेलापन नहीं लगता था ।
आखिर अब मेरी अकड़ ढीली पड रही थी उम्र का भी तकाजा था ,जो राधिका के रहने पर नहीं हुई थी,बेचारी तरस गई थी पूरे परिवार के साथ रहने के लिए।
दरवाजे पर दस्तक हुई,अनुज ने दरवाजा खोला ,सामने मैं हाथ जोड़े  खड़ा था", चल बेटा घर चल,बहू,पोते और तुम्हारे बिना मैं अधूरा हूं।"तुम्हारी मां सच कहती थी कि ,जब उम्र के इस पड़ाव पर आऊंगा तो मैं कितना अकेला हो जाऊंगा ,मुझे माफ कर दो।मैं तुमलोगों का अपराधी हूं।
कहना तो बहुत था अनुज को ,लेकिन वह जानता था आज पिता को उसकी जरूरत है,वो अपने पोते के साथ अपना बचपन जीना चाहते हैं,उन्होंने को किया वो उनकी सोच थी , मां ने कभी मुझे स्वार्थी और किसी का दिल दुखाना नहीं सिखाया।
शायद मां आज बहुत खुश होगी,ये सोच अनुज ,श्रेया और पार्थ के साथ वापस मेरे साथ अपने घर में वापस आ गया।
मुझे तो सब कुछ मिल गया। मैं पार्थ के पीछे ऐसे दौड़ता जैसे मुझमें कितनी शक्ति हो,वह मेरे जैसे ही खाता था,उसे वही आम बहुत पसंद थे ,हम दोनों ऐसे झगड़ते जैसे मैं भी बच्चा हूं।अनुज और श्रेया खूब हंसते।कितने सालों मैने इस खुशी को अपने घर के दरवाजे बंद कर दूर रखा।
आज मैं तो खुश हूं अपने पार्थ के साथ ,लेकिन राधिका का क्या.....वो तो तड़पती रही , पिसती रही बाप ,बेटे के बीच में।
जिंदगी के सफर में गुजर जाते हैं जो मकाम  वो फिर नहीं आते ।

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8 Comments

Shrishti pandey

05-Mar-2022 11:20 AM

Very nice

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Abhinav ji

05-Mar-2022 09:05 AM

Nice

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Punam verma

05-Mar-2022 12:06 AM

बहुत सही और आज के समय में perfect बैठ रही है यह कहानी

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