पहचान
मैं उस पंतग कि तरह हू, जिसकी डोर मालूम नहीं। उड़ती हुई आसमां को छू जाती हू, जैसे किसी की खबर नहीं। अपनी ही राग खोई हुई, एक नई मंजिल बनाने निकली हूँ। ज़्यादा बड़ी तो नहीं हाँ बस,अपने सपने बुनने निकली हूँ। उन हवाओं को भी चीर जाती हूँ जो सरदी मैं बरफ सी,और गर्मी मैं आग सी लगती। उन चट्टानों से भी टकरा जाती, जो कभी हिलने का नाम भी नहीं लेती। हाँ बस इसलिए, कि मैं खुले आसमान में उड़ने का ज़ज्बा रखती हूँ मैं उस पतंग कि तरह हू…………..। गर होते पर मेरे, तो पता नहीं कहा उड़ जाती। बिना पर के हि तो सारा आसमां घूम कर आती। टूट कर तो वो बिखरते हैं, जिनके धागे कमजोर होते हैं। हम तो वो किड़े हैं, जो रेशम के धागे खुद बुनते हैं। दिल में हौसला बुलंद लिए बैठी हूं हर एक हार के लिये जबाब लिए बैठी हूं। हो सके तो मुझे हौसला दे ईश्वर वरना हिम्मत तो, मैं अपने साथ लिए बैठी हूँ।
Antima srivastava
Aliya khan
22-Jun-2021 09:02 PM
बेहतरीन
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Swati Charan Pahari
22-Jun-2021 07:30 PM
सुंदर
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Vfyjgxbvxfg
22-Jun-2021 06:53 PM
बहुत खूब
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