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मकान


प्रतियोगिता के लिए


मकान



चाहा बनाना घर मगर मकान हो गया।

हर शख्स एक दूजे से अनजान हो गया।


बहते ही चले गए ज़ज़्बात की रौ में।

कह  दी कहानी पूरी तो इम्तिहान हो गया। 


कहते रहे कि पास आओ बैठो पल दो पल।

पर बेरुखी से उनके ज़ख्म निशान हो गया।


दिल में नहीं किसी के पलती है अब मोहब्बत ।

नफ़रत तो जैसे बिन बुलाया मेहमान हो गया।


रहते है अलग कमरे में दरवाजा बंद करके।

रौनक थी जहाँ पर दहर सुनसान हो गया।


चेहरे सपाट लेकर होठों को सिये बैठे।

लगता है जैसे बड़ा कोई नुकसान हो गया।


चाहा पकड़ना कस कर मुठ्ठी में रिश्तों को।

सबसे बड़ा यहीं पर गुनाह हो गया।


सबर नहीं बची अब सगे भाइयों में भी।

इक इंच ज़मीं के लिए घमासान हो गया।



कुछ पल की ज़िंदगी बची जी लो जी भर \\\\'स्नेह\\\\\' ।

बेशक तुम्हारा  चूर सब अरमान हो गया ।।


स्नेहलता पाण्डेय \\\\\'स्नेह\\\\\'





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10 Comments

Shivani Sharma

26-Mar-2022 01:19 AM

वेरी नाइसली रिटेन

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Punam verma

25-Mar-2022 12:04 AM

Nice

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Ravi Goyal

24-Mar-2022 02:52 PM

वाह बहुत खूबसूरत रचना 👌👌

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