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वो लाख परदों में हों चाहे

#लेखनी दैनिक काव्य प्रतियोगिता

वो लाख परदों में हों चाहे
पर पहचान लेते हैं

हम उनके इत्र की ख़ुशबू से

उन्हें जान लेते हैं

वो लाख परदों में हों चाहे...

उनके अल्फ़ाज़ जो
कानों में घुलते मिसरी की तरह
आवाज़ की खनक को सुन
दिल थाम लेते हैं

वो लाख परदों में हों चाहे...

न दीद होती चाहे
रूख़ की, न तो लब ही छुए
पर नकाब से झांकती
नज़रों का हम जाम लेते हैं

वो लाख परदों में हों चाहे...

बड़े बेफ़िक्र से निकले

पलटकर भी नहीं देखा

यूंही नहीं उन्हें बेरहमी का

हम इल्ज़ाम देते हैं

वो लाख परदों में हों चाहे...

कोशिशें नाकाम हुई सारी
पर ये मानता नहीं
धड़कते दिल को समझाने
उन्हीं का नाम लेते हैं

वो लाख परदों में हों चाहे...


प्रीति ताम्रकार

जबलपुर(मप्र))

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10 Comments

Shrishti pandey

26-Mar-2022 08:14 PM

Nice

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Mohammed urooj khan

26-Mar-2022 09:41 AM

वाह बहुत खूब

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Punam verma

26-Mar-2022 08:19 AM

Very nice

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