कौन हो तुम अपरिचित सी
कौन हो तुम अपरिचित सी
कौन हो तुम अपरिचित सी?
मौन आमंत्रण देती सी।
पहाड़ी नदी सी अविरंल,
मीन की तरह नयन चंचल।
निर्झरित करती श्वेत जलधार,
जल प्रपात सा कल, कल करता,
उमड़ रहा यौवन का ज्वार।
देवदार के सुरभित चीड़ों में करती,
ज्यों सूर्य-प्रभा प्रणय अभिसार।
कौन हो तुम अपरिचित सी?
पारिजात के पुष्पों को समेटती,
स्वप्निल संसार में तल्लीन सी।
मद्धम स्वर में गुनगुनाती सी,
मंद मंद ज्यूँ मुस्काती सी।
कौन हो तुम अपरिचित सी?
पूर्णिमा की चांदनी सी।
दिवस को पृथक करती निशा से,
उषा की रक्तिम लाली सी।
प्रातः बेला की पुष्पित डाली सी।
शुभ्र वर्ण, मृदुल कोमलांगी सी।
कंचन काया,उलझे लटों को सँवारती सी।
कौन हो तुम अपरिचित सी ?
नरगिसी कजरारे नयनों वाली,
काली अलकों के तीखे कोर,
मिलते ज्यों दो क्षितिज के छोर,
सर्व अलंकारों की प्रतिमूर्ति,
प्रेम बाण से बेधती हुई।
मम हृदय अति विवश करती सी।
कौन हो तुम अपरिचित सी ?
तन से बिखेरती नैसर्गिक मोहक गंध,
चंदन,गुलाब ,बेला सी महकाती सुगन्ध।
बाँसुरी की तान पर तारिका सी जगमगाती,
मेरे हृदय के तारों से जुड़ती चली जाती।
कौन हो तुम अपरिचित सी ?
किंतु प्रतीत होती चिरपरिचित सी।
स्नेह लता पाण्डेय 'स्नेह'
नई दिल्ली
Nitish bhardwaj
29-Jun-2021 01:37 AM
वाह बहुत ही सुंदर रचना
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ऋषभ दिव्येन्द्र
28-Jun-2021 06:57 PM
वाह , बहुत ही सुन्दर रचना रची है आपने 👌👌👌👌
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Zulfikar ali
28-Jun-2021 02:14 PM
लाजवाब 👍👌👌👌
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