अंजान राहें
अंजान राहें
चलते चलते राहों में यूँ ही,भटकते चले गए;
राहें थीं अंजान, राहों को अपना बनाते चले गए।
किससे कहें और क्या कहें, कि है हमें दुःख किस बात का।
कुछ अल्फ़ाज़ थे मुख से निकलने को आतुर, रुँध के गले के ना जाने कौन से कोने में चले गए।
चलते चलते राहों में यूँ ही,भटकते चले गए;
राहें थीं अंजान, राहों को अपना बनाते चले गए।
कभी यूँ भी लगा कि, कह दूँ सभी से कि आओ देख लो यह हूँ मैं, यहाँ हूँ मैं।
फ़िर ना जाने क्या सोच कर,फिर से मौन ही रह गया हूँ मैं।
चलते चलते राहों में यूँ ही,भटकते चले गए;
राहें थीं अंजान, राहों को अपना बनाते चले गए।
अब तो सिर्फ़ इतना बचा है कहने को, कुछ दुष्कर थीं राहें और कुछ दुश्वारियाँ थीं रहबर में।
देख इसे यूँ ही मुस्कुराते चले गए।
चलते चलते राहों में यूँ ही,भटकते चले गए;
राहें थीं अंजान, राहों को अपना बनाते चले गए।
------- SKY Roberts "आजमगढ़ वाले"
Ravi Goyal
30-Jun-2021 08:32 AM
Bahut khoob 👌👌
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Aliya khan
29-Jun-2021 10:47 PM
बेहतरीन
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ऋषभ दिव्येन्द्र
29-Jun-2021 07:01 PM
बहुत ही बेहतरीन 👌👌👌👌
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SKY Roberts "आजमगढ़ वाले"
29-Jun-2021 07:57 PM
धन्यवाद 🙏
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