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पंडित मदनसिंह अपनी छोलदारी में बैठे हुए गहने-कपड़े सहेज रहे थे कि मुंशी बैजनाथ दौड़े हुए आए और बोले– भैया! अनर्थ हो गया। आपने यहां नाहक ब्याह किया।
मदनसिंह ने चकित होकर पूछा– क्यों, क्या हुआ, क्या कुछ गड़बड़ है?
‘हां, अभी इसी गांव का एक आदमी मुझसे मिला था, उसने इन लोगों की ऐसी कलई खोली कि मेरे होश उड़ गए।’
‘क्या ये लोग नीच कुल के हैं?’
‘नीच कुल के तो नहीं हैं, लेकिन मामला कुछ गड़बड़ है। कन्या का पिता हाल में जेलखाने से छूटकर आया है और कन्या की एक बहन वेश्या हो गई है। दालमंडी में जो सुमनबाई है, वह इसी कन्या की सगी बहन है।’
मदनसिंह को मालूम हुआ कि वह किसी पेड़ पर से फिसल पड़े। आंखें फाड़कर बोले– वह आदमी इन लोगों का कोई बैरी तो नहीं? विघ्न डालने के लिए लोग बहुधा झूठमूठ कलंक लगा दिया करते हैं।
पद्मसिंह– हां, ऐसी ही बात मालूम होती है।
बैजनाथ– जी नहीं, वह तो कहता था, मैं उनलोगों के मुंह पर कह दूं।
मदनसिंह– तो क्या लड़की उमानाथ की नहीं है?
बैजनाथ– जी नहीं, उनकी भांजी है। वह जो एक बार थानेदार पर मुकदमा चला था, वही थानेदार उमानाथ के बहनोई है, कई महीनों से छूटकर आए हैं।
मदनसिंह ने माथा पकड़कर कहा– ईश्वर! तुमने कहां लाकर फंसाया?
पद्मसिंह– उमानाथ को बुलाना चाहिए।
इतने में पंडित उमानाथ स्वयं एक नाई के साथ आते हुई दिखाई दिए। वधू के लिए गहने-कपड़े की जरूरत थी। ज्योंही वह छोलदारी के द्वार पर आकर खड़े हुए कि मदनसिंह जोर से झपटे और उनके दोनों हाथ पकड़कर झकझोरते हुए बोले– क्योंकि तिलकधारी महाराज, तुम्हें संसार में और कोई न मिलता था कि तुमने अपने मुख की कालिख मेरे मुंह लगाई?
बिल्ली के पंजे में फंसे हुए चूहे की तरह दीन भाव से उमानाथ ने उत्तर दिया– महाराज, मुझसे कौन-सा अपराध हुआ है?
मदनसिंह– तुमने वह कर्म किया है कि अगर तुम्हारा गला काट लूं, तो भी पाप न लगे। जिस कन्या की बहन पतिता हो जाए, उसके लिए तुम्हें मेरा ही घर ताकना था।
उमानाथ ने दबी हुई आवाज से कहा– महाराज, शत्रु-मित्र सब किसी के होते हैं। अगर किसी ने कुछ कलंक की बात कही हो तो आपको उस पर विश्वास न करना चाहिए। उस आदमी को बुलाइए। जो कुछ कहना हो, मेरे मुंह पर कहे।
पद्मसिंह– हां, ऐसा होना बहुत संभव है। उस आदमी को बुलाना चाहिए।
मदनसिंह ने भाई की ओर कड़ी निगाह से देखकर कहा– तुम क्यों बोलते हो जी। (उमानाथ से) संभव है, तुम्हारे शत्रु ही ने कहा हो, लेकिन बात सच्ची है या नहीं?
‘कौन बात?’
‘यही कि सुमन कन्या की सगी बहन है।’
उमानाथ का चेहरा पीला पड़ गया। लज्जा से सिर झुक गया। नेत्र ज्योतिहीन हो गए। बोले– महाराज...और उनके मुख से कुछ न निकला।
मदनसिंह ने गरजकर कहा– स्पष्ट क्यों नहीं बोलते? यह बात सच है या झूठ?
उमानाथ ने फिर उत्तर देना चाहा, किंतु ‘महाराज’ के सिवा और कुछ न कह सके।
मदनसिंह को अब कोई संदेह न रहा। क्रोध की अग्नि प्रचंड हो गई। आंखों से ज्वाला निकलने लगी। शरीर कांपने लगा। उमानाथ की ओर आग्नेय दृष्टि से ताककर बोले– अब अपना कल्याण चाहते हो, तो मेरे सामने से हट जाओ। धूर्त्त, दगाबाज, पाखंडी कहीं का! तिलक लगाकर पंडित बना फिरता है, चांड़ाल! अब तेरे द्वार पर पानी न पिऊंगा। अपनी लड़की को जंतर बनाकर गले में पहन– यह कहकर मदनसिंह उठे और उसे छोलदारी में चले गए जहां सदन पड़ा सो रहा था और जोर से चिल्लाकर कहारों को पुकारा।
उनके जाने पर उमानाथ पद्मसिंह से बोले– महाराज, किसी प्रकार पंडितजी को मनाइए। मुझे कहीं मुंह दिखाने को जगह न रहेगी। सुमन का हाल तो आपने सुना ही होगा। उस अभागिन ने मेरे मुंह में कालिख लगा दी। ईश्वर की यही इच्छा थी, पर अब गड़े हुए मुरदे को उखाड़ने से क्या लाभ होगा? आप ही न्याय कीजिए, मैं इस बात को छिपाने के सिवा और क्या करता? इस कन्या का विवाह तो करना ही था। वह बात छिपाए बिना कैसे बनता? आपसे सत्य कहता हूं कि मुझे यह समाचार संबंध ठीक हो जाने के बाद मिला।
पद्मसिंह ने चिंतित स्वर से कहा– भाई साहब के कान में बात न पड़ी होती, तो यह सब कुछ न होता। देखिए, मैं उनके पास जाता हूं, पर उनका राजी होना कठिन मालूम होता है।
मदनसिंह कहारों से चिल्लाकर कह रहे थे कि जल्द यहां से चलने की तैयारी करो। सदन भी अपने कपड़े समेट रहा था। उसके पिता ने सब हाल उससे कह दिया था।
इतने में पद्मसिंह ने आकर आग्रहपूर्वक कहा– भैया, इतनी जल्दी न कीजिए। जरा सोच-समझकर काम कीजिए। धोखा तो हो ही गया, पर यों लौट चलने में तो और भी जग-हंसाई है।
सदन ने चाचा की ओर अवहेलना की दृष्टि से देखा और मदनसिंह ने आश्चर्य से।
पद्मसिंह-दो-चार आदमियों से पूछ देखिए, क्या राय है?
मदनसिंह– क्या कहते हो, क्या जान-बूझकर जीती मक्खी निगल जाऊं?
पद्मसिंह– इसमें कम-से-कम जगहंसाई तो न होगी।
मदनसिंह– तुम अभी लड़के हो, ये बातें न जानो? जाओ, लौटने का सामान तैयार करो। इस वक्त जग-हंसाई अच्छी है। कुल में सदा के लिए कलंक तो न लगेगा।
पद्मसिंह– लेकिन यह तो विचार कीजिए कि कन्या की क्या गति होगी। उसने क्या अपराध किया है?
मदनसिंह ने झिड़ककर कहा– तुम हो निरे मूर्ख। चलकर डेरे लदाओ। कल को कोई बात पड़ जाएगी, तो तुम्हीं गालियां दोगे कि रुपए पर फिसल पड़े। संसार के व्यवहार में वकालत से काम नहीं चलता।
पद्मसिंह ने कातर नेत्रों से देखते हुए कहा– मुझे आपकी आज्ञा से इंकार नहीं है, लेकिन शोक है कि इस कन्या का जीवन नष्ट हो जाएगा।
मदनसिंह– तुम खामख्वाह क्रोध दिलाते हो। लड़की का मैंने ठेका लिया है? जो कुछ उसके भाग्य में बदा होगा, वह होगा। मुझे इससे क्या प्रयोजन?
पद्मसिंह ने नैराश्यपूर्ण भाव से कहा– सुमन का आना-जाना बिल्कुल बंद है। इन लोगों ने उसे त्याग दिया है।
मदनसिंह– मैंने तुम्हें कह दिया कि मुझे गुस्सा न दिलाओ। तुम्हें ऐसी बात मुझसे कहते हुए लज्जा नहीं आती? बड़े सुधारक की दुम बने हो। एक हरजाई की बहन से अपने बेटे का ब्याह कर लूं! छिः छिः तुम्हारी बुद्धि भ्रष्ट हो गई।
पद्मसिंह ने लज्जित होकर सिर झुका लिया। उनका मन कह रहा था कि भैया इस समय जो कुछ कह रहे हैं, वही ऐसी अवस्था में मैं भी करता। लेकिन भयंकर परिणाम का विचार करके उन्होंने एक बार फिर बोलने का साहस किया। जैसे कोई परीक्षार्थी गजट में अपना नाम न पाकर निराश होते हुए भी शोधपत्र की ओर लपकता है, उसी प्रकार अपने को धोखा देकर पद्मसिंह भाई साहब से दबते हुए बोला– सुमनबाई भी अब विधवाश्रम में चली गई है।
पद्मसिंह सिर नीचा किए बातें कर रहे थे। भाई से आंखें मिलाने का हौसला न होता था। यह वाक्य मुंह से निकला ही था कि अकस्मात् मदनसिंह ने एक जोर से धक्का दिया कि वह लड़खड़ाकर गिर पड़े। चौंककर सिर उठाया, मदनसिंह खड़े क्रोध से कांप रहे थे! तिरस्कार के वे कठोर शब्द जो उनके मुंह से निकलने वाले थे, पद्मसिंह को भूमि पर गिरते देखकर पश्चात्ताप से दब गए थे। मदनसिंह की इस समय वही दशा थी, जब क्रोध में मनुष्य अपना ही मांस काटने लगता है।
यह आज जीवन में पहला अवसर था कि पद्मसिंह ने भाई के हाथों धक्का खाया। सारी बाल्यावस्था बीत गई, बड़े-बड़े उपद्रव किए, पर भाई ने कभी हाथ न उठाया। वह बच्चों के सदृश्य रोने लगे, सिसकते थे, हिचकियां लेते थे, पर हृदय में लेशमात्र भी क्रोध न था। केवल यह दुख था कि जिसने सर्वदा प्यार किया, कभी कड़ी बात नहीं कही, उसे आज मेरे दुराग्रह से ऐसा दुख पहुंचा। यह हृदय में जलती हुई अग्नि की ज्वाला है, यह लज्जा, अपमान और आत्मग्लानि का प्रत्यक्ष स्वरूप है, यह हृदय में उमड़े हुए शोक-सागर का उद्वेग है। सदन ने लपककर पद्मसिंह को उठाया और अपने पिता की ओर क्रोध से देखकर कहा– आप तो जैसे बावले हो गए हैं!
इतने में कई आदमी आ गए और पूछने लगे– महाराज, क्या बात हुई है? बारात को लौटाने का हुकुम क्यों देते हैं? ऐसे कुछ करो कि दोनों ओर की मर्यादा बनी रहे, अब उनकी और आपकी इज्जत एक है। लेन-देन में कुछ कोर-कसर हो, तुम्हीं दब जाओ, नारायण ने तुम्हें क्या नहीं दिया है। इनके धन से थोड़े ही धनी हो जाओगे? मदनसिंह ने कुछ उत्तर नहीं दिया।
महफिल में खलबली पड़ गई। एक दूसरे से पूछता था, यह क्या बात है? छोलदारी के द्वार पर आदमियों की भीड़ बढ़ती ही जाती थी। \
महफिल में कन्या की ओर भी कितने ही आदमी थे। वह उमानाथ से पूछने लगे– भैया, ये लोग क्यों बारात लौटाने पर उतारू हो रहे हैं? जब उमानाथ ने कोई संतोषजनक उत्तर न दिया, तो वे सब-के-सब आकर मदनसिंह से विनती करने लगे– महाराज, हमसे ऐसा क्या अपराध हुआ है? और जो दंड चाहे दीजिए, पर बारात न लौटाइए, नहीं तो गांव बदनाम हो जाएगा। मदनसिंह ने उनसे केवल इतना कहा– इसका कारण उमानाथ से पूछो, वही बतलाएंगे।
पंडित कृष्णचन्द्र ने जब से सदन को देखा था, आनंद से फूले न समाते थे। विवाह का मुहूर्त निकट था। वह वर आने की राह देख रहे थे कि इतने में कई आदमियों ने आकर उन्हें खबर दी। उन्होंने पूछा– क्यों लौट जाते हैं? क्या उमानाथ से कोई झगड़ा हो गया है?
लोगों ने कहा– हमें यह नहीं मालूम, उमानाथ तो वहीं खड़े मना रहे हैं।
कृष्णचन्द्र झल्लाए हुए बारात की ओर चले। बारात का लौटना क्या लड़कों का खेल है? यह कोई गुड्डे-गुड्डी का ब्याह है क्या? अगर विवाह नहीं करना था, तो यहां बारात क्यों लाए? देखता हूं, कौन बारात को फेर ले जाता है? खून की नदी बहा दूंगा। कृष्णचन्द्र अपने साथियों से ऐसी ही बातें करते, कदम बढ़ाते हुए जनवासे में पहुंचे और ललकारकर बोले– कहां हैं पंडित मदनसिंह? महाराज, जरा बाहर आइए।
मदनसिंह यह ललकार सुनकर बाहर निकल आए और दृढ़ता के साथ बोले–
कहिए, क्या कहना है?
कृष्णचन्द्र– आप बारात क्यों लौटाए लिए जाते हैं?
मदनसिंह– अपना मन! हमें विवाह नहीं करना है।
कृष्णचन्द्र– आपको विवाह करना होगा। यहां आकर आप ऐसे नहीं लौट सकते।
मदनसिंह– आपको जो करना हो, कीजिए। हम विवाह नहीं करेंगे।
कृष्णचन्द्र– कोई कारण?
मदनसिंह– कारण क्या आप नहीं जानते?
कृष्णचन्द्र– जानता तो आपसे क्यों पूछता?
मदनसिंह– तो पंडित उमानाथ से पूछिए।
कृष्णचन्द्र– मैं आपसे पूछता हूं?
मदनसिंह– बात दबी रहने दीजिए। मैं आपको लज्जित नहीं करना चाहता।
कृष्णचन्द्र– अच्छा समझा, मैं जेलखाने हो आया हूं। यह उसका दंड है। धन्य है आपका न्याय।
मदनसिंह– इस बात पर बारात नहीं लौट सकती थी।
कृष्णचन्द्र– तो उमानाथ से विवाह का कर देने में कुछ कसर हुई होगी?
मदनसिंह– हम इतने नीच नहीं हैं।
कृष्णचन्द्र– फिर ऐसी कौन-सी बात है?
मदनसिंह– हम कहते हैं, हमसे न पूछिए।
कृष्णचन्द्र– आपको बतलाना पड़ेगा। दरवाजे पर बारात लाकर उसे लौटा ले जाना क्या आपने लड़कों का खेल समझा है? यहां खून की नदी बह जाएगी। आप इस भरोसे में न रहिएगा।
मदनसिंह– इसकी हमको चिंता नहीं है। हम यहां मर जाएंगे, लेकिन आपकी लड़की से विवाह न करेंगे। आपके यहां अपनी मर्यादा खोने नहीं आए हैं?
कृष्णचन्द्र– तो क्या हम आपसे नीच हैं?
मदनसिंह– हां, आप हमसे नीच हैं।
कृष्णचन्द्र– इसका कोई प्रमाण?
मदनसिंह– हां, है।
कृष्णचन्द्र– तो उसके बताने में आपको क्यों संकोच होता है?
मदनसिंह– अच्छा, तो सुनिए, मुझे दोष न दीजिएगा। आपकी लड़की सुमन जो इस कन्या की सगी बहन है, पतिता हो गई है। आपका जी चाहे, तो उसे दालमंडी में देख आइए।
कृष्णचन्द्र ने अविश्वास की चेष्टा करके कहा– यह बिलकुल झूठ है। पर क्षणमात्र में उन्हें याद आ गया कि जब उन्होंने उमानाथ से सुमन का पता पूछा था, तो उन्होंने टाल दिया था; कितने ही ऐसे कटाक्षों का अर्थ समझ में आ गया, जो जाह्नवी बात-बात में उन पर करती रहती थी। विश्वास हो गया और उनका सिर लज्जा से झुक गया। वह अचेत होकर भूमि पर गिर पड़े। दोनों तरफ के सैकड़ों आदमी वहां खड़े थे, लेकिन सब-के-सब सन्नाटे में आ गए। इस विषय में किसी का मुंह खोलने का साहस नहीं हुआ।
आधी रात होते-होते डेरे-खेमे सब उखड़ गए। उस बगीचे में अंधकार छा गया। गीदड़ों की सभा होने लगी और उल्लू बोलने लगे।