आलोचक
आलोचक
एक शाम, समुद्र की ओर जाता, घोड़े पर सवार एक आदमी सड़क किनारे की एक सराय में पहुंचा. वह उतरा. सागर की ओर जाने वाले दूसरे सवारों की तरह वह आत्मविश्वास से भरा था. घोड़े को उसने दरवाजे पर बांधा और सराय के अंदर दाख़िल हो गया.
आधी रात को, जब सब सो रहे थे, एक चोर उसका घोड़ा चुरा ले गया.
सुबह आदमी जागा. पता चला कि उसका घोड़ा चोरी हो गया है. घोड़े को याद कर वह दुखी हो गया. उसे अफ़सोस हुआ कि एक मनुष्य के मन में घोड़े को चुराने का विचार पनपा.
सराय में रुके अन्य यात्री वहां इकट्ठे हो गए और बतियाने लगे.
‘बेवकूफ़ी तो तुमने की कि घोड़े को अस्तबल से बाहर बांध दिया,’ पहले ने कहा.
‘उससे भी बड़ी बेवकूफ़ी यह कि घोड़े की टांगें खुली छोड़ दीं,’ दूसरा बोला.
‘असलियत में तो समुद्र की यात्रा के लिए घोड़े पर निकलना ही बेवकूफ़ी है,’ तीसरे ने कहा.
‘केवल आलसी और गिन-गिन कर क़दम रखने वाले ही घोड़े पर चलते हैं,’ चौथा बोला.
यात्री इन बातों को सुन-सुनकर उबल पड़ा. वह चिल्लाया,‘दोस्तों, क्योंकि मेरा घोड़ा चोरी चला गया है इसलिए आपको मेरी ग़लतियों और कमियों को गिनाने की जल्दी है. लेकिन आश्चर्य है कि आपमें से किसी ने भी घोड़ा चुराकर ले जानेवाले की आलोचना में कोई शब्द नहीं कहा!’