विक्रमोर्वशीयम्-10
यह वही मणि थी, जिसके कारण उर्वशी और महाराज का मिलन हुआ था। इसलिए महाराज उसका विशेष आदर करते थे। वह यह बात विदूषक को बता ही रहे थे कि कंचुकी ने आकर महाराज की जय-जयकार की। उसने कहा, "आपके क्रोध ने बाण बनकर इस पक्षी को मार डाला और इस मणि के साथ यह धरती पर गिर पड़ा।"
महाराज ने उस मणि को आग में शुद्ध करके पेटी में रखने की आज्ञा दी और यह जानने के लिए कि बाण किसका है उसपर अंकित नाम पढ़ने लगे। पढ़कर वह सोच में पड़ गए। उस पर लिखा हुआ था - यह बाण पुरुरवा और उर्वशी के धनुर्धारी पुत्र का है। उसका नाम आयु है और वह शत्रुओं के प्राण खींचनेवाला है।
विदूषक यह सुनकर बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने महाराज को बधाई दी, पर वह तो कुछ समझ ही नहीं पा रहे थे।
यह पुत्र कैसे पैदा हुआ। वह तो कुछ जानते ही नहीं। शायद उर्वशी ने दैवी-शक्ति से इस बात को छिपा रखा हो। पर उसने पुत्र को क्यों छिपा रखा?
वह इसी उधेड़बुन में थे कि च्यवन ऋषि के आश्रम से एक कुमार को लिये किसी तपस्विनी के आने का समाचार मिला। महाराज ने उन्हें वहीं बुला भेजा और कुमार को देखते ही उनकी आँखें भर आईं। हृदय में प्रेम उमड़ पड़ा और उनका मन करने लगा कि उसे कसकर छाती से लगा ले। पर ऊपर से वह शांत ही बने रहे। उन्होंने तापसी को प्रणाम किया आशीर्वाद देकर तापसी ने कुमार से कहा, "बेटा, अपने पिताजी को प्रणाम करो।"
कुमार ने ऐसा ही किया। महाराज ने उसे गदगद होकर आशीर्वाद दिया और तब तापसी बोली, "महाराज! जब यह पुत्र पैदा हुआ तभी कुछ सोचकर उर्वशी इसे मेरे पास छोड़ आई थी। क्षत्रिय-कुमार के जितने संस्कार होते है वे सब भगवान च्यवन ने करा दिए हैं। विद्याधन के बाद धनुष चलाना भी सिखा दिया गया है, लेकिन आज जब यह फूल और समिधादि लाने के लिए ऋषिकुमारों के साथ जा रहा था तो इसने आश्रम के नियमों के विरुद्ध काम कर डाला।"
विदूषक ने घबराकर पूछा, "क्या कर डाला?"
तापसी बोली, "एक गिद्ध मांस का टुकड़ा लिए हुए पेड़ पर बैठा था। उस पर लक्ष्य बाँधकर इसने बाण चला दिया। जब भगवान च्यवन ने यह सुना तो उन्होंने उर्वशी की यह धरोहर उसे सौंप आने की आज्ञा दी। इसलिए मैं उर्वशी से मिलने आई हूँ।"
महाराज ने तुरंत उर्वशी को बुला भेजा और पुत्र को गले से लगाकर प्यार करने लगे। उर्वशी ने आते ही दूर से उसे देखा तो यह सोच में पड़ गई, पर तापसी को उसने पहचान लिया। अब तो वह सबकुछ समझ गई। पिता के कहने पर जब पुत्र ने माता को प्रणाम किया तो उसने पुत्र को छाती से चिपका लिया। तापसी ने उसके स्वामी के सामने उसका पुत्र उसे सौंपते हुए कहा, "ठीक से पढ़-लिखकर अब यह कुमार कवच धारण करने योग्य हो गया है, इसलिए तुम्हारे स्वामी के सामने ही तुम्हारी धरोहर तुम्हें सौंप रही हूँ और अब जाना भी चाहती हूँ। आश्रम का बहुत-सा काम रुका पड़ा है।"
जाते समय कुमार भी साथ जाने के लिए मचल उठा, पर जब सबने समझाया तो वह आश्रम-जैसी सरलता से तापसी से बोला, "तो आप बड़े-बड़े पंखों वाले मेरे उस मणिकंठक नाम के मोर को भेज देना। वह मेरी गोद में सोकर मेरे हाथों से अपना सिर खुजलाये जाने का आनंद लिया करता था।"
Gunjan Kamal
11-Apr-2022 03:52 PM
Very nice 👌
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