Lekhika Ranchi

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-कालिदास


विक्रमोर्वशीयम्-11 
 
 तापसी हँस पड़ी और ऐसा ही करने का वचन देकर चली गई।महाराज पुत्र पाकर बड़े प्रसन्न हुए परंतु उर्वशी रोने लगी। यह देखकर महाराज घबरा उठे और इस विषाद का कारण पूछने लगे। उर्वशी बोली, "बहुत दिन हुए, आपसे प्रेम करने पर भरत मुनि ने मुझे शाप दिया था। उस शाप से मैं बहुत घबरा गई थी तब देवराज इंद्र ने मुझे आज्ञा दी थी कि जब हमारे प्यारे मित्र राजर्षि तुमसे उत्पन्न हुए पुत्र का मुँह देख लें तब तुम फिर मेरे पास लौट आना। आपसे बिछोह होने के डर से ही मैं इस कुमार को पैदा होते ही च्यवन ऋषि के आश्रम में पढ़ने-लिखाने के बहाने छोड़ आई थी। आज उन्होंने इसे पिता की सेवा करने के योग्य समझकर लौटा दिया है। बस आज तक ही मैं महाराज के साथ रह सकती थी।"

यह कथा सुनकर सबको बड़ा दुख हुआ। महाराज तो मूर्छित हो गए।जब जागे तो उन्होंने तुरंत ही पुत्र को राज्य सौंपकर तपोवन में जाकर रहने की इच्छा प्रगट की। लेकिन इसी समय नारद मुनि ने वहाँ प्रवेश किया। आकाश से उतरते हुए पीली जटावाले, कंधे पर चंद्रमा की कला के समान उजला जनेऊ और गले में मोतियों की माला पहने, वह ऐसे लगते थे जैसे सुनहरी शाखावाला कोई चलता-फिरता कल्पवृक्ष चला आ रहा हो। पूजा-अभिवादन के बाद उन्होंने कहा कि मैं देवराज इंद्र का संदेशा लेकर आया हूँ। वह अपनी दैवी शक्ति से सबके मन की बातें जाननेवाले हैं। उन्होंने जब देखा कि आप वन जाने की तैयारी कर रहे हैं तो उन्होंने कहलाया है -- "तीनों कालों को जाननेवाले मुनियों ने भविष्यवाणी की है कि देवताओं और दानवों में भयंकर युद्ध होनेवाला है। युद्ध-विद्या में कुशल आप हम लोगों की सदा सहायता करते ही रहें इसलिए आप शस्त्र न छोड़े। उर्वशी जीवन भर आपके साथ रहेगी।"

देवराज इंद्र का यह संदेश सुनकर उर्वशी और पुरुरवा दोनों बहुत प्रसन्न हुए। इंद्र ने कुमार आयु के युवराज बनने के उत्सव के लिए भी सामग्री भेजी थी। उसी से रंभा ने आयु का अभिषेक किया।

अभिषेक के बाद कुमार ने सबको प्रणाम किया और उनका आशीर्वाद पाया। लेकिन बड़ी महारानी वहाँ नहीं थीं। इसलिए उर्वशी ने आयु से कहा, "चलो बेटा! बड़ी माँ को प्रणाम कर आओ।" और वह उसे लेकर बड़ी महारानी के पास चली। महाराज बोले, "ठहरो, हम सब लोग साथ ही देवी के पास चलते हैं।" लेकिन चलने से पहले नारद मुनि ने उनसे पूछा, "हे राजन। इंद्र आपकी और कौन सी इच्छा पूरी करें।"

राजा बोले, "इंद्र की प्रसन्नता से बढ़कर और मुझे क्या चाहिए। फिर भी मैं चाहता हूँ कि जो लक्ष्मी और सरस्वती सदा एक-दूसरे से रूठी रहती हैं, सज्जनों के कल्याण के लिए सदा एकसाथ रहने लगें। सब आपत्तियाँ दूर हो जाए, सब फलें-फूलें, सबके मनोरथ पूरे हों और सब कहीं सुख-ही-सुख फैल जाए।

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1 Comments

Gunjan Kamal

11-Apr-2022 03:54 PM

Very nice

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