भगवान शिव के उस तेज को लेकर अग्निदेव इन्द्र की सभा में उपस्थित हुए। अग्निदेव का ऐसा विड्डत रूप देखकर इन्द्र ने इसका कारण पूँछा। अग्निदेव ने बताया, कि मैं आपकी आज्ञा को शिरोधार्य कर कबूतर का वेष बनाकर शिव के विनोद भवन में उपस्थित हुआ, तब उन्होंने मुझे तत्काल ही पहचान लिया। लज्जावश महादेव संभोग सुख से विरत हो गये, तथा उन्होंने अपना वीर्य मेरे शरीर के ऊपर गिरा दिया। संभोग सुख में बाधा उत्पन्न होने पर पार्वती ने भी मुझे कुष्ठी हो जाने का श्राप दे दिया। महादेव के इस प्रचण्ड तेज से मेरा शरीर जला जा रहा है। आप मेरी प्राणरक्षा का कोई उपाय बताने की ड्डपा करें। इन्द्र के परामर्शानुसार अग्निदेव गंगा में कूद गये। गंगा ने महादेव का वह तेज अपने अन्दर ग्रहण कर लिया। महादेव के उस तेज से गंगा का जल उबलने लगा, तथा उसमें रहने वाले जीव-जन्तु व्याकुल होकर बाहर निकलने लगे, परन्तु गंगा ने वह तेज अपने अंदर संजोये रखा। कुछ दिवसों के अनन्तर छः ड्डत्तिकाएँ गंगा में स्नानार्थ आयीं। गंगा ने वह तेज उन ड्डत्तिकाओं को दे दिया। उस तेज ने छः ड्डत्तिकाओं के अन्दर गर्भ का रूप ले लिया। वे ड्डत्तिकाएँ लाजवश तथा अपने पतियों के भय से भयभीत हो गयीं, परन्तु उन्होंने बुद्धिमत्तापूर्वक अपने-अपने गर्भ की रक्षा की। लज्जा तथा भय के कारण वे अपने-अपने गर्भ को एक झाड़ी में छोड़कर वे अपने-अपने घर चली गयीं। वह तेजस्वी गर्भ सैकड़ों सूर्यों को भी परास्त करने वाला था।
Gunjan Kamal
11-Apr-2022 03:57 PM
Very nice
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