इस सर्ग में तारकासुर की सेना के प्रस्थान का स्वाभाविक वर्णन है। जब दैत्यों को कुमार कार्तिकेय के सेनापति होने की जानकारी प्राप्त होती है, तब वे अत्यन्त भयभीत हो जाते हैं। उन्होंने तारकासुर को इस देव सेना के आगमन की सूचना दी। तारकासुर ने अपने सभी सेनापतियों को बुलाया तथ स्वयं सेना के साथ चल पड़ा। तारकासुर की विशाल सेना में इतनी पताकाएँ फहरा रही थीं, कि उनसे धूप तक रुक गयी। दैत्यराज की सेना के प्रस्थान के समय अनेक प्रकार के अपशकुन हो रहे थे। कौवे, गिद्ध आदि भयंकर जीव-जन्तु दैत्य सेना के ऊपर उड़ रहे थे। उसी समय सियारिनियां ऊपर मुँह करके रोने लगी थीं। ऐसा प्रतीत हो रहा था कि माने तारकासुर के दिन पूरे हो गये हों। यद्यपि सभी अपशकुन तारकासुर को युद्ध में जाने से रोक रहे थे, परन्तु अभिमानी एवं हठी तारकासुर को कौन रोक सकता था। अभिमान में भरा हुआ तारकासुर चला जा रहा था, उसी समय आकाशवाणी हुई - ‘हे दैत्यराज! तू कार्तिकेय के साथ युद्ध करने मत जा’ दैत्यराज तारकासुर ने आकाशवाणी को अनसुना करते हुए अपनी सेना को देवसेना के सम्मुख य़ुद्धभूमि में ला खड़ा किया। इतनी विशाल दैत्य सेना को देखकर एकबारगी देवसेना भयाकुल होने लगी, परन्तु कुमार कार्तिकेय ने सभी देवताओं का साहस बँधाया। उन्होंने देवताओं से कहा, कि दैत्य सेना पर आक्रमण करने के लिए तैयार हो जाओ। इस प्रकार देवताओं में उत्साह की लहर दौड़ गयी।