Lekhika Ranchi

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काजर की कोठरी--आचार्य देवकीनंदन खत्री

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इत्तफाक से न मालूम कहाँ का मारा-पीटा एक सर्दार आ पहुँचा और अम्मा जान को यह जिद्द हुई कि मैं उसके पास अवश्य जाऊँ, जिसे उन्होंने बड़ी खातिर से नीचेवाले कमरे में बैठा रखा था। मगर मुझे उस समय सिवाय तुम्हारे खयाल के और कुछ अच्छा नहीं लगता था, इसलिए मैं यहाँ बैठी रह गई, नीचे न उतरी, बस अम्मा एकदम यहाँ चली आईं और मुझे हजारों गालियाँ देने लगीं और तुम्हारा नाम ले-लेकर कहने लगीं कि पारसनाथ आवेंगे तो रात-रात – भर बैठी बातें किया करेगी और जब कोई दूसरा सर्दार आकर बैठेगा तो उसे पूछेगी भी नहीं!

आखिर घर का खर्च कैसे चलेगा? इत्यादि बहुत कुछ बक गईं मगर मैंने वह चुप्पी साधी कि सर तक न उठाया, आखिर बहुत बक-झक कर चली गईं। फिर यह भी न मालूम हुआ कि अम्मा ने उस सर्दार को क्या कहकर विदा किया या क्या हुआ। एक दिन की कौन कहे रोज ही इस तरह की खटपट हुआ करती है।

पारसनाथ: खैर थोड़े दिन और सब्र करो, फिर तो मैं उन्हें ऐसा खुश कर दूँगा कि वह भी याद करेंगी। मेरे चाचा की आधी जायदाद भी कम नहीं है। अस्तु, जिस समय वह तुम्हें बेगमों की तरह ठाठबाट से देखेंगी और खजाने की तालियों का झब्बा अपनी करधनी से लटकता हुआ पावेंगी उस समय उन्हें बोलने का कोई मुँह न रहेगा, दिन -रात तुम्हारी बलाएँ लिया करेंगी।

बाँदी : तब भला वह क्या कहने लायक रहेंगी और आज भी वह मेरा क्या कर सकती हैं? अगर बिगड़कर खड़ी हो जाऊँ तो उनके किए कुछ भी न हो, मगर क्या करूँ लोक-निंदा से डरती हूँ।

पारसनाथ: नहीं-नहीं, ऐसा कदापि न करना ! मैं नहीं चाहता कि तुम्हारी किसी तरह की बदनामी हो और सर्दार लोग तुम्हारी ढिठाई की घर-घर में चर्चा करें, अब भी मैं तुम्हें रत्ती-भर तकलीफ होने न दूँगा और तुम्हारे घर का खर्चा किसी-न-किसी तरह जुटाता ही रहूँगा।

बाँदी : नहीं जी, मैं तुम्हें अपने खर्चे के लिए भी तकलीफ देना नहीं चाहती, मैं इस लायक हूँ कि बहुत-से सर्दारों को उल्लू बनाकर अपना खर्च निकाल लूँ। तुमसे एक पैसा लेने की नीयत नहीं रखती, मगर क्या करूँ, अम्मा से लाचार हूँ इसी से जो कुछ तुम देते हो लेना पड़ता है। अगर उनके हाथ में मैं यह कहकर कुछ रूपै न दूँ कि ‘पारस बाबू ने दिया है’ तो वे बिगड़ने लगती हैं और कहती हैं कि ‘ऐसे सर्दार का आना किस काम का जो बिना कुछ दिए चला जाए!’

मैंने तुमसे अभी तक तो साफ-साफ नहीं कहा, आज जिक्र आने पर कहती हूँ कि उन्हें खुश करने के लिए मुझे बड़ी-बड़ी तरकीबें करनी पड़ती हैं। और सर्दारों से जो कुछ मिलता है उसका पूरा-पूरा हाल तो उन्हें मालूम हो ही नहीं सकता, इससे उन रकमों से मैं बहुत कुछ बचा रखती हूँ। जिस दिन तुम बिना कुछ दिए चले जाते हो उस दिन अपने पास से उन्हें कुछ देकर तुम्हारा दिया हुआ बता देती हूँ, यही सबब है कि वह ज्यादे चीं-चपड़ नहीं कर सकतीं।

पारसनाथ: यह तो मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि तुम मुझे जी-जान से चाहती हो और मुझ पर मेहरबानी रखती हो मगर क्या करूँ लाचार हूँ! तो भी इस बात की कोशिश करूँगा कि जब तुम्हारे यहाँ आऊँ, तुम्हारे वास्ते कुछ-न-कुछ जरूर लेता आऊँ।

बाँदी : अजी रहो भी, तुम तो पागल हुए जाते हो! इसी से मैं तुम्हें सब हाल नहीं कहती थी, जब मैं उन्हें किसी-न-किसी तरह खुश कर ही लेती हूँ, तो फिर तुम्हें तशद्दुद करने की क्या जरूरत है?

इसी प्रकार की बातें दोनों में हो रही थीं कि एक नौजवान लौंडी जो घर-भर को बल्कि दुनिया की हर एक चीज को एक ही निगाह (आँख) से देखती थी, मटकती हुई आ पहुँची और बाँदी से बोली, ”बीबी, नीचे छोटे नवाब साहब आए हैं!”

बाँदी : (चौंककर) अरे आज क्या है! कहाँ बैठे हैं?

लौंडी : अम्मा ने उन्हें पूरब वाली कोठरी में बैठाया है और आप भी उन्हीं के पास बैठी हैं।

बाँदी : अच्छा तू चल, मैं अभी आती हूँ! (पारसनाथ की तरफ देख के) बड़ी मुश्किल हुई अगर मैं उनके पास न जाऊँ तो भी आफत, कहें कि ‘लो साहब, रंडी का दिमाग नहीं मिलता!’ इतना ही नहीं, बेइज्जती करने के लिए तैयार हो जाएँ।

पारसनाथ: नहीं-नहीं, ऐसा न करना चाहिए, लो मैं जाता हूँ, अब तुम भी जाओ। (उठते हुए) ओफ, बड़ी देर हो गई!

बाँदी : पहिले वादा कर लो कि अब कब मिलोगे?

पारसनाथ: कल तो नहीं मगर परसों जरूर मैं आऊँगा।

बाँदी : मेरे सर पर हाथ रखो।

पारसनाथ: (बाँदी के सर पर हाथ रखके) तुम्हारे सर की कसम, परसों जरूर आऊँगा।

दोनों वहाँ से उठ खड़े हुए और निचले खंड में आए। पारसनाथ सदर दरवाजे से होता हुआ अपने घर रवाना हुआ और बाँदी उस कोठरी में चली गई, जिसमें नवाब साहब के बैठाए जाने का हाल लौंडी ने कहा था। दरवाजे पर पर्दा पड़ा हुआ था और कोठरी के अंदर बाँदी की माँ के सिवाय दूसरा कोई न था। नवाब के आने का तो बहाना-ही-बहाना था। बाँदी को देखकर उसकी माँ ने पूछा, ”गया?”

बाँदी : हाँ, गया। कमबख्त जब आता है, उठने का नाम ही नहीं लेता!

बाँदी की माँ : क्या करेगी बेटी! हम लोगों का काम ही ऐसा ठहरा। अब जाओ कुछ खा-पी लो, हरनंदन बाबू आते ही होंगे, इसीलिए मैंने नवाब साहब का बहाना करवा भेजा था।

बाँदी और उसकी माँ धीरे-धीरे बातें करती खाने के लिए चली गईं।

आधे घंटे के अंदर ही छुट्टी पाकर दोनों फिर उसी कोठरी में आईं और बैठकर यों बातें करने लगीं-

बाँदी : चाहे जो हो मगर सरला किसी दूसरे के साथ शादी न करेगी।

बाँदी की माँ : (हँसकर) दूसरे की बात जाने दो, उसे खास हरिहरसिंह के साथ शादी करनी पड़ेगी, जिसकी सूरत-शक्ल और चाल चलन को वह सपने में भी पसंद नहीं करती!

पाठक! हरिहरसिंह उसी सवार का नाम था, जिसका जिक्र उस उपन्यास के पहिले बयान में आ चुका है और जो बाँदी रंडी से उस समय मिला था जब वह नाचने-गाने के लिए हरनंदनसिंह के घर जा रही थी।

बाँदी अपनी माँ की बातें सुनकर कुछ देर तक सोचती रही और इसके बाद बोली, ‘लेकिन ऐसा न हुआ तब?

बाँदी की माँ : तब पारसनाथ को कुछ भी फायदा न होगा।

बाँदी : पारसनाथ को तो सरला की शादी किसी दूसरे के साथ हो जाने ही से फायदा हो जाएगा, चाहे वह हरिहरसिंह हो चाहे कोई और हो मगर हो पारसनाथ का कोई दोस्त ही।

बाँदी की माँ : अगर ऐसा न हुआ तो वसीयतनामे में झगड़ा हो जाएगा।

बाँदी : अगर सरला का बाप पहिला वसीयतनामा तोड़कर दूसरा वसीयतनामा लिखे, तब?

बाँदी की माँ : इसी खयाल से तो मैंने पारसनाथ से कहा था कि सरला की शादी लालसिंह के जीते-जी न होनी चाहिए और इस बात को वह अच्छी तरह समझ भी गया है।

बाँदी : मगर लालसिंह बड़ा ही काँइयाँ है।

बाँदी की माँ : ठीक है, मगर वह पारसनाथ के फेर में उस वक्त आ जाएगा जब वह उसे यहाँ लाकर तुम्हारे पास बैठे हुए हरनंदन का मुकाबला करा देगा।

बाँदी: लालसिंह जब यहाँ हरनंदन बाबू को देखेगा तो वह उन्हें बिना टोके कभी न रहेगा, और अगर टोकेगा तो हरनंदन बाबू को विश्वास हो जाएगा कि बाँदी ने मेरे साथ दगा की।

बाँदी की माँ : नहीं -नहीं, हरनंदन बाबू को ऐसा समझने का मौका कभी न देना चाहिए ! मगर यही तो हम लोगों की चालाकी है! हमें दोनों तरफ से फायदा उठाना और दोनों को अपना आसामी बनाए रखना ही उचित है।

बाँदी : तो फिर क्या तरकीब की जाए?

बाँदी की माँ : हरनंदन बाबू को सरला का पता बताना और लालसिंह को हरनंदन की सूरत दिखाना, ये दोनों काम एक ही समय में होने चाहिए। इसके बाद हम लोग लालसिंह से बिगड़ जाएँगे और उसे यहाँ से फौरन निकल जाने के लिए कहेंगे, उस समय हरनंदन बाबू को हम लोगों पर शक न होगा।

बाँदी: मगर इसके अतिरिक्त इस बात की उम्मीद कब है कि हरनंदन बाबू से बहुत दिनों तक फायदा होता रहेगा?

बाँदी की माँ : (मुस्कराकर) अरे हम लोग बड़े-बड़े जतियों को मुरुंडा कर लेती हैं, हरनंदन हैं क्या चीज? अगर मेरी तालीम का असर तुझ पर पड़ता रहेगा तो यह कोई बड़ी बात न होगी। .

बाँदी : कोशिश तो जहाँ तक हो सकेगा करूँगी, मगर सुनने में बराबर यही आता है कि हरनंदन बाबू को गाने-बजाने का या रंडियों से मिलने का कुछ भी शौक नहीं है, बल्कि वह रंडियों के नाम से चिढ़ता है।

बाँदी की माँ : ठीक है, इस मिजाज के सैकड़ों आदमी होते हैं और हैं, मगर उनके खयालों की मजबूती तभी तक कायम रहती है जब तक वे किसी-न-किसी तरह हम लोगों के घर में पैर नहीं रखते , और जहाँ एक दफे हम लोगों के आँचल की हवा उन्हें लगी तहाँ उनके खयालों की मजबूती में फर्क पड़ा! एक-दो कौन कहे पचासों जती और ब्रह्मचारियों की खबर तो मैं ले चुकी हूँ। हाँ अगर तेरे किए कुछ हो न सके तो बात ही दूसरी है।

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