परिणीता भाग :- ११
Parineeta भाग :- ११
शेखर गुरुचरण बाबू के विचारों को ताड़ गया। इसी कारण उसने बीच में ही अपनी बात छेड़ दी। वह सारी कथा-परदेश से वापस आने की, माँ के स्वास्थ्य की तथा अन्य तमाम बातें कहने लगा। फिर अपरिचित व्यक्ति की ओर देखा।
गुरुचरण बाबू इस बीच काफी सतर्क हो चुके थे। उन्होंने उस लड़के के परिचय में कहा - ‘यह गिरीन्द्र बाबू के मित्र हैं। इन लोगों के घर एक ही स्थान पर हैं। बड़े ही भले आदमी हैं, और श्याम बाजार में रहते हैं। हमारी इनसे जब से मुलाकात हुई है, बेचारे आकर मिल जाते हैं।’
शेखर ने गुरुचरण बाबू की बातों में अपनी सम्मति, दी परंतु मन ही मन विचार किया - ‘हां, देखने में नम्र आदमी लगते हैं।’ थोड़ी देर रुककर फिर वह गुरूचरण बाबू से बोला, ‘काका, और सब ठीक-ठाक है न?’
गुरुचरण बाबू ने कुछ भी नहीं कहा और सिर झुकाए चुप सुनते रहे।
‘अच्छा, काकाजी अब चलता हूँ।’ – यह कहकर शेखर जाने को तैयार हो गया। उसे जाता देखर, रुआंसे होकर गुरुचरण बाबू ने कहा- ‘बेटा! तुमने सब बातें सुन ही ली होगीं, फिर भी कभी-कभी आते रहना एकाएक हम दुःखियों का त्याग न कर देना।’
शेखर - ‘अच्छा काकाजी!’ कहता हुआ वह भीतर ललिता की मामी से मिलने चला गया। थोड़ी देर बाद ललिता को मामी की रोने की आवाज बैठक में सुनाई दी। उनकी रोने की आवाज सुनकर गुरुचरण बाबू के आँसू आ गए और उन्होंने अपनी धोती से उन्हें पोंछ लिया। गिरीन्द्र की मुखाकृति एक अपराधी की-सी हो रही थी। वह नीरस-सा बाहर की ओर देखने लगा। शेखर के जाने के पहले ही ललिता वहाँ से चली गई थी।
कुछ समय के बाद शेखर उसकी मामी से बातें करके बाहर की ओर आया। सीढियों से उतरते समय, अंधेर कमरे में दरवाजे के निकट उसने ललिता को खड़े हुए देखा। उसको देखते ही वह भी खड़ा हो गया। ललिता ने शेखर को प्रणाम किया और उसके पास आ गई। कुछ समय तक शेखर से कुछ उत्तर पाने की लालसा से खड़ी रही; फिर थोड़ा पीछे हटकर मंद स्वर में उसने कहा- ‘आपने मेरे पत्र का उत्तर क्यों नहीं दिया?’
‘कौन सा पत्र?’
‘उसमें बहुत सी बातें थी। अच्छा, उन बातं को छोड़ो! यहाँ की सभी बातें आपने सुन ही ली हैं। मेरे लिए क्या हुकम देते हो?’
शेखर ने आश्चर्य में पड़कर कहा- ‘मेरा हुक्म? मेरा हुक्म किसलिए? म्रे हुक्म से लाभ ही क्या?’
ललिता ने शंक्ति होकर कहा- ‘क्यों?’
शेखर - ‘और नहीं तो क्या?’ मैं किसे हुक्म दूं?
ललिता - ‘मुझको हुक्म दो, और किसका दोगे?’
शेखर- ‘तुम्हें क्यों हुक्म दूंगा? फिर हुक्म देने पर तुम उसको मानोगी ही क्यों? शेखर के इस कथन में करूणा मिश्रित थी।’
ललिता यह सुनकर मन ही मन घबरा उठी।
उसने शेखर की छाती के समीप सिरकते हुए कहा - ‘जाने दो इन बातों को। इस समय यह मजाक अच्छा नहीं लगता। तुम्हारे पांव पड़ती हूँ, मुझे अब तंग मत करो। बताओ-कैसे क्या होगा? मुझे डर के मारे रात को नींद नहीं आती हैं।’
‘आखिर भय किसलिए?’
ललिता- ‘क्या कह रहे हो? भय न लगेगा, तो फिर क्या लगेगा? न तो तुम्हीं यहाँ थे और न माताजी ही थीं। फिर मामा ने क्या कर डाला, वह भी तुमसे छिपा नहीं है। अब यदि माँ मुझे न स्वीकार करें तो?’
थोड़े समय बाद शेखर ने कहा - ‘वह तो ठीक ही है, अब माँ कैसे स्वीकार कर सकती हैं? उन्हें यह भी पता चला कि तुम्हारे मामा ने अन्य लोगों से काफी पैसे लिए हैं। साथ ही अब वह ब्रह्मसमाजी भी हो गए हैं। हम लोग हिंदू हैं।’
अन्नाकील ने उसी वक्त आकर ललिता से कहा - ‘मामी बुला रही हैं। ललिता ने जोर से कहा- ‘अच्छा तू जा, मैं अभी आती हूं।’ फिर नम्रतापूर्वक शेखर से कहने लगी- ‘यह कुछ भी क्यों न हो, फिर भी जो धर्म तुम्हारा है- वही मेरा भी। यदि वह तुमको नहीं अलग कर सकतीं, तो मुझे भी नहीं अलग कर सकतीं। इसके सिवा गिरीन्द्र बाबू के लिए हुए रूपए मैं उन्हें लौटा दूंगी। यह तो मेरे ऊपर कर्जा है, दो दिन आगे-पीछे लौटाना ही होगा।’
शेखर- ‘इतना अधिक रूपया देने के लिए कहाँ से मिलेगा?’
ललिता इस बात के उत्तर में काफी समय तक चुप रही, फिर हंस कर बोली - ‘क्या आपको ज्ञात नहीं कि स्त्रियों को रूपए कौन देता है? मैं भी उनहें से ले आऊंगी।’
शेखर के हृदय में उथल-पुथर मची हुई थी। वह फिर कहे लगा- ‘परंतु मामा ने उस रूपयों के लिए तुम्हें तो बेच ही डाला है।’
ललिता अंधेरे में शेखर के चेहरे को न देख सकी, परंतु गले के स्वर को तुरंत ताड़ गई और बोली, यह सब झूठी, व्यर्थ की बातें हैं। मेरे मामा के सदृश भला मनुष्य दुनिया में होना कठिन है। तुम व्यर्थ ही उनकी हंशी उड़ाते हो। उनके कष्टों तथा दुःखों की कोई बात भी दूसरों से छिपी नहीं है, तुम भले ही न जानते हो।’ आवश में ललिता ने इतनी बातें कह डालीं, और फिर तनिक देर रूककर कहने लगी- ‘फिर वह रूपया मामा ने लिया है मेरे व्याह के बाद; इस कारण मुझे बेचने का कोई धिकार उन्हें कहाँ था? यदि मुझे बेचने का कोई अधिकार उन्हें कहाँ था?यदि मुझे बेनचे का कोई अधिकार है, तो केवल तुम हो, और कोई नहीं।’ इतना कहते हुए, उत्तर की कोई प्रतीक्षा न करके ललिता अंदर चली गई।
कुछ देर तक अवाक्-सा शेखर वहीं खड़ा रहा, फिर धीरेःधीरे गुरुचरण बाबू के घर से बाहर चला आया।
9
उस रात को काफी समय तक शेखर पागलों की भाँति, बिना किसी उद्देश्य के इधर-उधर गलियों में फिरता रहा; फिर घर में आकर बैठा हुआ सोच-विचार में पड़ा रहा। उसे बड़ा आश्चर्य हो रहा था कि यह सीधी-सादी ललिता इतनी बातें कहाँ से सीख आई? यह निर्लज्जता की बातें उसे कहाँ से कहनी आ गई। इतना साहस, गजब का साहसा! आखिर यह सब कहाँ से? ललिता के आज के व्यवहार पर उसे क्रोध तथा आश्चर्य दोनों हो रहे थे, परंतु वास्तव में यह शेखर की भूल थी। यदि वह तनिक भी बुद्धिमानी से सोचता, तो शायद उसे अपनी ही कमजोरी और कमी पर अपने ही ऊपर क्रोध आता। ललिता का कहना अक्षरशः सत्य था। वह बेचारी और कह ही क्या सकती थी?
इधर कई महीने ललिता से अलग रहकर शेखर ने भातिभाति की कल्पनाएं की थीं। इन्हीं कल्पनाओं के अन्तर्गत वह कभी तो जीवन-भर का सुख अनुभव करता और कभी लाभ-हानि के विचारों में पड़ा रहता। उसे अनुभव होता कि ललिता कितनी अधिक उसकी जीवन-सहचरी बन चुकी है। शेखर यह भी अनुभव करता कि उसके बिना जी सकना भी कितना कठिन एवं दुःखप्रद है। बचपन से ही ललिता उसके परिवार में घुळी-मिली थी। शेखर उसे सदा महत्त्वपूरण स्थान देता आया है। अपना काम भी उसने ललिता पर ही छोड़ दिया, परंतु शेखर के मन में इस प्रकार की आशंकाएं अवश्य उठती थीं कि कहीं ललिता उसकी जीवनसंगिनी न बन सके, या उसके माँ-बाप इस कार्य में बाधक न होय जाएं। कहीं ललिता किसी अन्य के हाथ न लग जाए। शेखर इसी प्रकार की दुश्चिंताओं में पहले से ही परेशान था। इन्हीं विचारों के कारण शेखर के परदेश जाने से पहले ही ललिता के गले में गेंदे वाली माला डालकर एक बंधन लगा दिया था।
परदेश में गुरुचरण बाबू के धर्म-परिवर्तन की खबर पाकर शेखर बेचैन हो गया। उसके हृदय में और भी गहरी चिंता हुई कि ललिता शायद अब उसकी न रह पाए। आराम हो या तकलीफ, वह उन लोगों की सभी परिस्थितियों की जानकारी रखता था। फिर भी ललिता की आज वाली स्पष्टवादिता से उसकी सभी भावनाएं परिवर्तित हो गई थीं, उनमें घुमाव हो गया था, परंतु शेखर न समझ पाया कि इन भावनाओं से भी कर्तव्य कहीं श्रेयस्कर है। पहले उसे दुःख हुआ था कि कहीं ललिता उससे दूर न चली जाए परंतु अब यह परेशानीथी कि कहीं उसे ही ललिता का हाथ न छोड़ना पड़ जाए।
श्याम बाजार में लगा हुआ उसकी विवाह भी रूक चुका था। जितनी सम्मपत्ति नवीनराय चाहते थेष वे लोग न दे सके। शेखर की माँ को भी यह रिश्ता नहीं जंचा था। इस प्रकार शेखर इस मुसीबत से छूटा। मगर नवीनराय दस-बीस हजार मारने की फिक्र में अब भी थे। इसके लिए उनकी कोशिश बराबर चालू थी।
शेखर विचारता था कि क्या किया जाए। उस रात को अनायस ही जो कार्य हो गया, क्या वह इतना दृढ़ रूप धारण कर लेगा? क्या ललिता पूर्ण रूप से यह विश्वास कर लेगी कि उसका पाणिग्रहण हो चुका है? और अक्षय संबंध स्थापित हो का है? इतनी गहराई तक शेखर ने कभी विचार नहीं किया था। उस समय तो शेखर ने आलिंगन करते हुए कहा था कि ललिता, अब जो होना था, हो चुका, इस संबंध को अब कोई नहीं तोड़ सकता न तुम अलग हो सकती हो और न मैं छुट सकता हूँ । इस प्रकार तर्क-कुतर्क करके सोचने की क्षमता उस समय न थी, और न उस समय सोच सकने का अवसर ही था।
उस समय सर पर चांद मुस्करा रहा था। चांदनी की रूपहली आभी छिटक रही थीं। ऐसे समय उसने अपनी प्रियतमा ललिता के गले में माला डाल दी थीष उसे अपने वक्षस्थल से लगा प्रेम संसार में वे दोंनो एक-दूसरे को अपना सर्वस्व सौंप चुके थे। उस समय उन्हें सांसारिक अच्छाईयों और बुराइयों का अनुभव न था। पैसे के लोभी बाप का रूद्र भी उसकी आँखो से ओल था। उसे याद था कि माँ ललिता को प्यार करती हैं, इसलिए उन्हें इस कार्य के लिए राजी कर सकना कठिन न होगा। इसी तरह वह भैया के द्वारा पिताजी को भी कह-सुनकर मना लेगा। किसी-न-किसी तरह इस काम के लिए सब तैयार ही हो जाएंगे। इस बात को शेखर सपने में भी न सोचता था कि गुरुचरण बाबू अपना यह सुगम रास्ता, धर्म-परिवर्तन करके बंद कर डालेंगे विधाता ही इस प्रकार विमुख हो जाएंगे – ऐसा भी खयाल उसे न था। ललिता से संबंध उसका सचमुच हो चुका था।
यथार्थ में शेखर के सामने यह एक विशाल एवं कठिन समस्या थी। उसको पथा था कि एसे समय पिताजी को राजी करने की कौन कहे, माँ भी अब शायद इस कार्य के लिए न राजी होंगी। उसे अब कोई मार्ग न सूझ पड़ता था।
‘ओह! फिर क्या किया जाए?’ कहकर शेखर गहरी सांस ली। ललिता को वह भली-भांति जानता था। उसी ने पढ़ाया-लिखाया और सभी शिष्टाचार की बातें सिखाई थीं। ललिता ने एक बार अपना धर्म समझकर फिर उसकी त्याग न किया। वह जानती है कि वह शेखर की एकमात्र धर्मपत्नी है, इसलिए आज संध्या समय अंधेर में, निःसंकोच वह शेखर के निकट मुंब-से-मुंह मिलाए खड़ी थी।
ललिता की शादी की बातचीत गिरीन्द्र के साथ हुई थीं, परंतु इस रिश्ते के लिए उसको कोई भी राजी न कर पाएगा। समय ऐसा आ गया है कि उसे मुंह खोलकर स्पष् कहना ही पड़ेगा। इस प्रकार सारा रहस्य खुल जाएगा- यह सोचकर शेखर की आँखों में आग प्रज्वलित हो गई, उसकी चेहरा तमतमा उठा। फिर सोचने लगा कि माला पहनकर ही वह चुप नहीं रहा, बल्कि ललिता को अपने वक्षस्थल से लगाकर उसके उसके अधरों की सुधा-रस का भी पान किया। ललिता ने किसी प्रकार की रूकावट नहीं डाली। इस कार्य में वह अपने को दोषी न समझती थी, इसीलिए उसे कोई हिचकिचाहट भी न थी। उसने शेखर को अपना धर्म-पति समझ लिया था। शेखर अपनी इस करनी तथा व्यवहार को कैसे किसी को बताएगा? किसी के सामने वह मुंह भी न दिखा सकेगा।
वास्तव में बात यह भी कि माँ-बाप की राय बगैर ललिता का विवाह भी नहीं हो सकता था, इसमें जरा भी शक नहीं था। परंतु जब गिरीन्द्र के साथ ललिता की शादी न हे का कारण सामने आएगा, तब क्या होगा? फिर वह घर के बाहर अपना मुंह कैसे दिखा-सकेगा?
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शेखर ने असम्भव समझकर ललिता को पाने की आशा छोड़ दी। कई दिन उसे डर अनुभव होता रहा। वह एकाएक सोचने लगता कि कहीं ललिता आकर सब बातें कहकर भण्डफोड़ न कर दे, उसकी बातों का जवाब न देना पड़ जाए, परंतु कई दिन बीत गए, उसने किसी ने कुछ नहीं कहा। यह भी पता नहीं चला कि किसी को ये बाते मालूम हुई अथवा नहीं। किसी प्रकार की चर्चा ललिता के घर में नहीं हुई और न कोई शेखर के यहाँ ही इस विषय के लिए आया।