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जवानी से बुढ़ापे की ओर

कुँवारेपन से विवाह तक।

 हिमांशु पाठक
 चलों! आज मैं तुम्हें ,
जवानी के दौर का ,
एक किस्सा सुनाता हूँ। 
और तुम्हें अतीत के पथ पर ,
ले जाता हूँ। 
ये किस्सा उस दौर का है ; 
जब मैं जवान था। 
और कुँवारेपन की ,
जिन्दगी का आनन्द ले रहा था। 
साथ ही साथ शादी के लिए,
 मचल भी रहा था। 
और इसीलिए अपनें मुहल्ले की,
 एक लड़़की से आँखे,
 लड़ाने मे लग गया। 
लड़की क्या! वो तो परी थी, 
ऐसा लगता था कि,
 वो मेरे लिए बनी थी।
खैर! मुझे लगा कि
मेरी मेहनत रंग लाने लगी। 
अब तो वो भी मुझे देख ,
वो भी मुस्कुराने लगी। 
किस्मत अच्छी थी कि,
अपना पासा लग गया ।
और उससे टाँका भीड़ गया।
पर हाय रे किस्मत! 
इसी दरम्यान उसकी मम्मी का,
मेरी मम्मी से झगड़ा हो गया।
बड़ी मेहनत करके,
 उससे मेरा टाँका भीड़ा था। 
पर दोनों मम्मीयों के दिल में,
तो  लड़ाई का कीड़ा था।
मुझें तो वो लड़की,
चन्द्रमुखी सी नजर आती। 
पर मेरी माँ को वो,
 एक आँख ना सुहाती।
 उसको और मुझे,
 ऐसा लग रहा था
 कि इस जन्म में तो मिलना ,
अब नामुमकिन सा लग रहा था।
मगर ऊपर वाले ने ,
ऐसा चमत्कार दिखाया, 
कि हमसे पहले,
हमारी मम्मीयों को मिलाया।
खैर हम दोनों की मंगनी भी हो गयी, 
और येन-केन प्रकारेण,
 हमारी शादी भी हो गयी।
 शुरू-शुरू में तो,
 हनी भी मून जैसा लगा , 
या फिर मून भी हनी जैसा लगा, 
मगर धीरे-धीरे हनी और मून,
दोनों  गायब हो गया। 
अब तो ये जीवन,
सुना सा हो गया। 
वो शुरु- शुरू में,
 चन्द्रमुखी सी लगी, 
धीरे-धीरे !
सूरजमुखी सी लगी, 
अब तो वह,
 ज्वालामुखी सी नजर आती है। 
और मुझे तो अपने गुरू,
 सुरेन्द्र शर्मा जी की याद आती है। 
खैर! वो रसोई और बच्चों में,
 उलझ गयी।
और हम रोजी-रोटी में ,
उलझतें चलें गयें, 
मेरे बाल कम हो गये,
वो खिचड़ी से पक गयें । 
उसकी आँखों में,
 काले धब्बे और ,
चेहरे में झुर्रियाँ पड़ गयें । 
पूरा जीवन ,
कभी आटे दाल में  गुजर गया,
कभी बच्चों की डिमांड में, 
गुजर गया। 
मैं सुबह-सुबह,
ऑफिस को निकल जाता। 
मुझे फुरसत ही नही होती कि मैं, 
अपने पड़ोसी है मिल पाता।
 मेरे अपने मुझसे ,
 को तरसते थें ।
मैं हमेशा बाहर रहता था ,
वो जब भी मुझसे मिलने,
मेरे घर आतें थें ।
मुझे ना त्यौहारों की सुधि रहती,
ना घरेलू पर्वों में  रूचि  रहती।
मुझें तो बस अपने नाम, 
और शोहरत में रूचि रहती। 
इस तरह मैं अपनों से,
 कटता चला गया।
 मुझे पता ही नही चला,
 कि मैं कब बड़ा हो गया। 
हाय रे एक तो महंगा स्कूल,
ऊपर से महंगी स्कूल की फीस,
इतना क्या कम था
कि स्कूल मालिकों के द्वारा,
 दी जा रही तकलीफ, 
स्कूल तो कमाई का धंधा बन गया,
बच्चों की पढ़ाई हो या ना हो,
पर मालिकों का तो धंधा चल गया।
स्कूल मालिकों की तो, 
पौ-बारह हो गयी
और हमें पता सी चला,
कि कब हमारी जेब कट गयी। 
फिर बच्चे बड़े हुए ।
उनकी जिम्मेदारियां ,
सर पर खड़ी हो गयी। 
हम इससे भी उबर गयें,
अब सोचा कि चलों,
अपनें लिए जीते हैं, 
कुछ फुरसत में बैठ,
मीठी यादों को याद करतें हैं।
इसी उद्देश्य से सफर में निकल गयें 
पता चला हाथ -पॉव धोखा दे गयें।
हमें पता ही नही चला कि
हम अब बुढ़े हो गयें।
अब जवानी का,
वो दौर याद आता है।
मुझे उस पड़ोसन का,
पुराना चेहरा नजर आता है।
हाय रे! हमारे द्वारा ,
जिन्दगी की,
एक सीढी और चढ़ ली गयी, 
हमारी जवानी बुढ़ापे की 
दहलीज बढ़ती चली गयी।
 समाप्त 
 हिमांशु पाठक 
 "पारिजात" ए-36,जज-फार्म,
 छोटी मुखानी, हल्द्वानी-263139
नैनीताल ,उत्तराखंड

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12 Comments

Seema Priyadarshini sahay

14-May-2022 06:32 PM

बहुत खूबसूरत

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Anam ansari

14-May-2022 09:24 AM

Very nice

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Haaya meer

13-May-2022 10:09 PM

Amazing

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