नील का दाग
चम्पारन जनक राजा की भूमि है। जिस तरह चम्पारन मे आम के वन है , उसी तरह सन् 1917 मे वहाँ नील के खेत थे। चम्पारन के किसान अपनी ही जमीन के 3/20 भाग मे नील की खेती उसके असल मालिको के लिए करने को कानून से बंधे हुए थे। इसे वहाँ 'तीन कठिया' कहा जाता था। बीस कट्ठे का वहाँ एक एकड़ था और उसमे से तीन कट्ठे जमीन मे नील बोने की प्रथा को 'तीन कठिया' कहते थे।
मुझे यह स्वीकार करना चाहिये कि वहाँ जाने से पहले मै चम्पारन का नाम तक नही जानता था। नील की खेती होती है, इसका ख्याल भी नही के बराबर था। नील की गोटियाँ मैने देखी थी, पर वे चम्पारन मे बनती है और उनके कारण हजारो किसानो को कष्ट भोगना पड़ता है, इसकी मुझे कोई जानकारी नही थी।
राजकुमार शुक्ल नामक चम्पारन के एक किसान थे। उन पर दुःख पड़ा था। यह दुःख उन्हें अखरता था। लेकिन अपने इस दुःख के कारण उनमे नील के इस दाग को सबके लिए धो डालमे की तीव्र लगन पैदा हो गयी थी। जब मै लखनऊ कांग्रेस मे गया , तो वहाँ इस किसान ने मेरा पीछा पकड़ा। 'वकील बाबू आपको सब हाल बतायेंगे' -- ये वाक्य वे कहते जाते थे और मुझे चम्पारन आने का निमंत्रण देते जाते थे।
वकील बाबू से मतलब था, चम्पारन के मेरे प्रिय साथी, बिहार के सेवा जीवन के प्राण ब्रजकिशोर बाबू से। राजकुमार शुक्ल उन्हें मेरे तम्बू मे लाये। उन्होने काले आलपाका की अचकन , पतलून वगैरा पहन रखा था। मेरे मन पर उनकी कोई अच्छी धाप नही पड़ी। मैने मान लिया कि वे भोले किसानो को लूटने वाले कोई वकील साहब होगे।
मैने उनसे चम्पारन की थोडी कथी सुनी। अपने रिवाज के अनुसार मैने जवाब दिया , 'खुद देखे बिना इस विषय पर मै कोई राय नही दे सकता। आप कांग्रेस मे बोलियेगा। मुझे तो फिलहाल छोड़ ही दीजिये।' राजकुमार शुक्ल को कांग्रेस की मदद की तो जरूरत थी ही। ब्रजकिशोरबाबू कांग्रेस मे चम्पारन के बारे मे बोले और सहानुभूति सूचक प्रस्ताव पास हुआ।
राजकुमार शुक्ल प्रसन्न हुए। पर इतने से ही उन्हें संतोष न हुआ। वे तो खुद मुझे चम्पारन के किसानो के दुःख बताना चाहते थे। मैने कहा , 'अपने भ्रमण मे मै चम्पारन को भी सम्मिलित कर लूँगा और एक-दो दिन वहाँ ठहरूँगा।'
उन्होने कहा , 'एक दिन काफी होगा। नजरो से देखिये तो सही।'
लखनऊ से मै कानपुर गया था। वहाँ भी राजकुमार शुक्ल हाजिर ही थे। 'यहाँ से चम्पारन बहुत नजदीक है। एक दिन दे दीजिये। '
'अभी मुझे माफ कीजिये। पर मै चम्पारन आने का वचन देता हूँ।' यह कहकर मै ज्यादा बंध गया।
मै आश्रम गया तो राजकुमार शुक्ल वहाँ भी मेरे पीछे लगे ही रहे। 'अब तो दिन मुकर्रर कीजिये।' मैने कहा, 'मुझे फलाँ तारीख को कलकत्ते जाना है। वहाँ आइये और मुझे ले जाईये।'
कहा जाना, क्या करना और क्या देखना , इसकी मुझे कोई जानकारी न थी। कलकत्ते मे भूपेन्द्रबाबू के यहाँ मेरे पहुँचने के पहले उन्होने वहाँ डेरा डाल दिया था। इस अपढ़ , अनगढ परन्तु निश्चयवान किसान ने मुझे जीत लिया।
सन् 1917 के आरम्भ मे कलकत्ते से हम दो क्यक्ति रवाना हुए। दोनो की एक सी जोड़ी थी। दोनो किसान जैसे ही लगते थे। राजकुमार शुक्ल जिस गाडी मे ले गये , उस पर हम दोनो सवार हुए। सबेरे पटना उतरे।
पटना की मेरी यह पहली यात्रा थी। वहाँ किसी के साथ ऐसा परिचय नही था , जिससे उनके घर उतर सकूँ। मैने यह सोच लिया था कि राजकुमार शुक्ल अनपढ़ किसान है , तथापि उनका कोई वसीला तो होगा। ट्रेन मे मुझे उनकी कुछ अधिक जानकारी मिलने लगी। पटना मे उनका परदा खुल गया। राजकुमार शुक्ल की बुद्धि निर्दोष थी। उन्होने जिन्हे अपना मित्र मान रखा था वे वकील उनके मित्र नही थे , बल्कि राजकुमार शुक्ल उनके आश्रित जैसे थे। किसान मुवक्किल और वकील के बीच चौमासे की गंगा के चौड़े पाट के बराबर अन्तर था।
मुझे वे राजेनद्रबाबू के घर ले गये। राजेन्द्रबाबू पुरी अथवा और कहीं गये थे। बंगले पर एक-दो नौकर थे। मेरे साथ खाने की कुछ साम्रगी थी। मुझे थोडी खजूर की जरुरत थी। बेचारे राजकुमार शुक्ल बाजार से ले आये।
पर बिहार मे तो छुआछात का बहुत कड़ा रिवाज था। मेरी बालटी के पानी के छींटे नौकर को भ्रष्ट करते थे। नौकर को क्या पता कि मै किस जाति का हूँ। राजकुमार शुक्ल ने अन्दर के पाखाने का उपयोग करने को कहा। नौकर ने बाहर के पाखाने की ओर इशारा किया। मेरे लिए इससे परेशान या गुस्सा होने का कोई कारण न था। इस प्रकार के अनुभव कर-करके मै बहुत पक्का हो गया था। नौकर तो अपने धर्म का पालन कर रहा था और राजेन्द्रबाबू के प्रति अपना कर्तव्य पूरा कर रहा था। इस मनोरंजक अनुभवो के कारण जहाँ राजकुमार शुक्ल के प्रति मेरा आदर बढा स वहाँ उनके विषय मे मेरा ज्ञान भी बढा। पटना से लगाम मैने अपने हाथ मे ले ली।