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सिनेमा टोक लेखांक 3, मुघल-ए-आझम भाग-2, नॉन स्टॉप राइटिंग चेलेन्ज भाग-7

सिनेमा टोक लेखांक 3 नोन स्टोप राइटिंग चेलेंन्ज भाग-7 

Mughal-E-Azam (लेखांक भाग-2)


 

हेल्लो दोस्तो,

मुघल ए आझम के पहले भाग मे मुख्य कलाकारो के बारे मे लिखा गया था। इस भाग मे बाकी के कलाकार और कुछ अन्य बाते करेंगे।

1.    अजीत (27 जनवरी 1922 – 22 अक्तुबर1998)

 

बोलीवुड के खतरनाक खलनायक अजीत का मुल नाम हमीद अली खान था। अजीत के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने 70 के दशक में भारतीय सिनेमा में खलनायक की छवि को पूरी तरह से बदल कर रख दिया। ये शख्स शिष्ट था, पढ़ा-लिखा था सूट और सफ़ेद जूते पहनता था और उसकी क्लार्क गेबल्स स्टाइल की मूछें हुआ करती थीं। अजीत का मानना था कि हिंदी फ़िल्मों के विलेन अक्सर ऊँची आवाज़ में बात करते थे। अजीत ने विलेन की डॉयलॉग डिलीवरी को एक सॉफ़्ट टच दिया जो कड़े से कड़ा फ़ैसला लेते हुए भी अपनी आवाज़ ऊँची नहीं करता था।

अजीत पर हाल ही में प्रकाशित किताब 'अजीत द लायन' लिखने वाले इक़बाल रिज़वी बताते हैं, "एक ज़माने में विलेन डाकू होते थे या उससे भी पहले ज़मीनदार या गाँव का महाजन विलेन होता था जो सूद पर कर्ज़ दिया करता था लेकिन 70 के दशक में जब अजीत विलेन बने तो भारतीय समाज बदलने लगा था। अंग्रेज़ी फ़िल्मों का भी असर दिखने लगा था। तब एक ऐसे विलेन से हमारा परिचय होता है जो बहुत शालीन है। ऐसा नहीं है कि उसके बड़े बाल हैं या उसके हाथ में बंदूक है और जो बात-बात पर गोली चला देता है। वो सूट पहनता है, बो लगाता है और किसी होटल का जहाँ जुएख़ाने चलते हैं, लाएसेंसी मालिक है। वो बहुत आराम और सुकून से बात करता है। उनको देख कर ये यकीन नहीं होता था कि ये आदमी भी इतना बदमाश और शैतान हो सकता है।"

अजीत का ददिहाल शाहजहाँपुर में था लेकिन उनका जन्म गोलकोंडा हैदराबाद में हुआ जहाँ उनके पिता निज़ाम की सेना में काम करते थे. आज़ादी से पहले शरीफ़ घर के बच्चों को फ़िल्म देखने की इजाज़त नहीं होती थी।

 

इक़बाल रिज़वी बताते हैं, "अजीत के मामू के पास हैदराबाद के दो सिनेमा हॉल्स की कैंटीन का ठेका था। इसलिए उनके फ़िल्में देखने पर कोई रोक नहीं थी। वहाँ से उनके अंदर सिनेमा को लेकर जोश पैदा हुआ। 12 साल की उम्र में अजीत ने फ़ुटबॉल खेलना शुरू कर दिया और जल्द ही वो अच्छे फ़ुटबॉल खिलाड़ी बन गए। पढ़ाई में उनका दिल लगता नहीं था।"

 

"अजीत की जब परीक्षा हुई तो उन्हें अंदाज़ा हो गया कि वो उसमें पास नहीं हो पाएंगे.। वो अपने वालिद से बहुत डरते थे। वो बहुत सख़्त मिज़ाज थे। उन्हें डर था कि उनकी बहुत पिटाई होगी और उन्हें फ़ौज में भर्ती करा दिया जाएगा। तब उन्होंने फ़ैसला किया कि उन्हें बंबई जाकर एक्टिंग में अपना हाथ आज़माना चाहिए। इसलिए उन्होंने अपने पिता से झूठ बोला कि उन्होंने परीक्षा पास कर ली है। उन्होंने उनसे स्कूल की फ़ीस ली और अपनी सारी किताबें बेच डालीं और उससे मिले 113 रुपयों को लेकर ट्रेन से बंबई के लिए रवाना हो गए।"

 

बाद में कीथ डी कोस्टा को दिए इंटरव्यू में अजीत ने कहा था, "जब मैं बंबई आया तो मुझे उम्मीद थी कि सभी नामी निर्देशक जैसे केदार शर्मा, महबूब ख़ान और वी शाँताराम वीटी रेलवे स्टेशन पर बाहें फैला कर मेरा स्वागत करेंगे। मेरे दिमाग़ में ये बेवकूफ़ी भरी बात घर कर गई थी कि फ़िल्मों में काम करने के बारे में सोचने वाला शायद मैं अकेला शख़्स था।"

पॉडकास्ट

ज़ाहिर है अजीत की उम्मीदों को बहुत बड़ा झटका लगा। उन्होंने पठानों की ज़ुबान पश्तो पर फिर से हाथ आज़माना शुरू कर दिया ताकि वो फ़िल्म स्टूडियो और बड़े फ़िल्म निर्माताओं के घर पर सुरक्षा गार्ड के रूप में काम करने वाले अफ़गान पठानों को प्रभावित कर कुछ फ़िल्मी हस्तियों के नज़दीक जा सकें।

बंबई में उन्होंने एक जगह पाँच रुपए महीने पर किराए पर ली। अजीत ने उर्दू पत्रिका रूबी के नवंबर, 1975 के अंक में 'याद ए अय्याम, इशरत ए फ़ानी' शीर्षक से लिखे लेख में स्वीकार किया, "वो जगह इतनी छोटी थी कि मेरे जैसा छह फ़िट लंबा शख़्स टाँगे सिकोड़ कर ही उसके अंदर आ पाता था। एक दोस्त ने मुझे कुछ घरों से किराया वसूलने की ज़िम्मेदारी सौंपी। उसने कहा तुम्हारा डीलडौल अच्छा ख़ासा है इसलिए तुम्हें इस काम में कोई मुश्किल नहीं आएगी। लेकिन मुझे ये काम पसंद नहीं आया। उन्हीं दिनों मेरी मुलाकात मज़हर ख़ान से हुई जिन्होंने मुझे अपनी फ़िल्म 'बड़ी बात' में स्कूल टीचर का रोल दिया। मैंने करीब तीन सालों तक बतौर जूनियर आर्टिस्ट छह फ़िल्मों में काम किया। इस दौरान मेरा नाम हामिद अली ख़ान ही रहा।"

 

इस दौरान हामिद अली ख़ान निर्माता निर्देशक के. अमरनाथ के संपर्क में आए। उन्होंने उनके साथ एक हज़ार रुपए महीने का कॉन्ट्रैक्ट साइन किया। अमरनाथ ने ही उनका नाम अजीत रखा।

इक़बाल रिज़वी बताते हैं, "अमरनाथजी का मानना था कि हामिद अली ख़ान नाम कुछ ज़्यादा ही लंबा है। सिनेमा में नाम ऐसा होना चाहिए कि लोगों की ज़ुबान पर चढ़ जाए। उन्हें इसे छोटा कर और आकर्षक और कैची बनाना चाहिए ताकि लोगों को ये नाम लेने में आसानी हो। अमरनाथ ने उन्हें दो तीन नाम सुझाए थे लेकिन उन्हें अजीत नाम सबसे अच्छा लगा। अजीत नाम चल निकला और उन्हें फ़िल्में मिलने लगीं।"

 

बतौर हीरो अजीत की पहली फ़िल्म थी बेकसूर जिसमें मधुबाला उनकी हीरोइन थीं (ये भी किस्मत की बात है की हिन्दुस्तान की सब से सुन्दर एक्ट्रेस उस के साथ बतौर हीरो काम करने का सौभाग्य प्राप्त हुवा) । इसके बाद उन्होंने नास्तिक, बड़ा भाई, बारादरी और ढोलक में भी काम किया। अजीत को मुग़ल ए आज़म फ़िल्म में दुर्जन सिंह की भूमिका से भी काफ़ी प्रसिद्धि मिली।

 

लेकिन उस वक़्त के ज्युबीली कुमार एक्टर राजेन्द्र कुमार ने अजीत को ननकारात्मक रोल के लिये मनाया और तैयार किया। बात यह थी की राजेन्द्रकुमार अपनी फिल्मो मे हमेशा प्रेमी की भुमिकाये निभाते थे। उन के बेटे कुमार गौरव (संजय दत्त के जिजु) जब छोटे थे तब जीद करी की पापा आप राजा महाराजाओ के रोल मे क्यु नही आते, फिल्मो मे ढिशुम ढिशुम क्यु नही करते। और राजेन्द्रकुमार ने खुद एक फिल्म बनाने का फैसला किया ‘सुरज’। इस फिल्म मे अजीत को बतौर विलेन लिया गया और अजीत की गाडी विलेन के रुप मे चल पडी।  इस फ़िल्म से प्रभावित होकर लेख टंडन ने उन्हें 'प्रिन्स' फ़िल्म के लिए साइन किया।

इकबाल रिज़वी बताते हैं, "अजीत और राजेंद्र कुमार के बीच ख़ासी दोस्ती थी क्योंकि दोनों की शायरी में बहुत दिलचस्पी थी। उस ज़माने में अजीत को हीरो के तौर पर फ़िल्में मिलना बंद हो गई थीं। राजेंद्र कुमार ने उन्हें सूरज फ़िल्म में बतौर विलेन काम करने की सलाह दी। शुरू में अजीत थोड़ा झिझके लेकिन राजेंद्र कुमार ने कहा कि विलेन की उम्र बहुत ज़्यादा होती है लेकिन एक ख़ास उम्र के बाद हीरो को काम मिलना बंद हो जाता है। राजेंद्र कुमार चूँकि उनके दोस्त थे इसलिए अजीत को लगा कि वो अपने किसी फ़ायदे के लिए उन्हें सलाह नहीं दे रहे हैं। इसलिए उन्होंने उनकी सलाह मानकर सूरज फ़िल्म में विलेन का रोल ले लिया।"

अजीत ने एक इंटरव्यू में स्वीकार किया कि सूरज फ़िल्म से हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में उनका एक तरह से पुनर्जन्म हुआ।

तेजा और शाकाल के रोल ने अजीत को पीक पर पहुंचाया

तीन दशकों तक कई कैरेक्टर रोल करने के बाद 1973 में जाकर उनके पास दो ऐसे रोल आए जिन्होंने उन्हें पूरे भारत में नई पहचान दे दी। ये दोनों रोल स्मगलर के थे और इन्हें लिखा था सलीम-जावेद की मशहूर जोड़ी ने। अमिताभ बच्चन की पहली सुपर हिट फिल्म  ज़ंजीर में तेजा और यादों की बारात में शाकाल की भूमिका ने उन्हें बॉलिवुड के चोटी के खलनायकों की श्रेणी में ला खड़ा किया।

ज़ंजीर फ़िल्म का बजट बहुत बड़ा नहीं था। इस फ़िल्म में तेजा के रोल के लिए अजीत ने अपने ही कपड़े पहने थे। बहुत मुश्किल से किसी की तारीफ़ करने वाले दिलीप कुमार ने अजीत को इस रोल के लिए बधाई दी थी। अजीत ने जिस तरह तेजा का रोल निभाया उसमें एक तरह का हॉलिवुड टच था।

इक़बाल रिज़वी बताते हैं, "अजीत बहुत शौक से हॉलिवुड की फ़िल्में देखा करते थे। उन्होंने हॉलिवुड अभिनेताओं के स्टाइलिश, फ़ैशनेबल कपड़ों, सिगार और पाइप पीने, लंबी कार पर चलने और विनम्र ठंडे हावभाव को बख़ूबी अपनाया जिसने उन्हें सिनेमा प्रेमियों के बीच बहुत लोकप्रिय बना दिया।"

धर्मा तेजा पर आधारित था तेजा का चरित्र

खलनायकों पर हाल ही में छपी किताब 'प्योर इविल द बैड मैन ऑफ़ बॉलिवुड' में बालाजी विट्टल लिखते हैं, "दरअसल तेजा और शाकाल नाम के शख़्स वास्तव में इस दुनिया में थे। 1960 में जयंत धर्मा तेजा ने जयंती शिपिंग कंपनी की स्थापना के लिए 2 करोड़ 20 लाख रुपए का कर्ज़ लिया था। बाद में जब पता चला कि वो कर्ज़ लिए पैसे को अपने खाते में ट्राँसफ़र कर रहे थे तो वो देश से भाग खड़े हुए। सलीम-जावेद ने इसी तेजा से प्रेरणा लेकर ज़ंजीर फ़िल्म में अजीत का रोल लिखा था।"

 

इसके ठीक विपरीत जीपी शाकाल एक इज़्ज़तदार व्यक्ति थे जो नासिर हुसैन की फ़िल्मों के पब्लिसिटी इंचार्ज थे। किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि सलीम-जावेद इस इज़्ज़तदार शख़्स का नाम यादों की बारात फ़िल्म में अजीत को देंगे जो एक दंपत्ति को गोली से उड़ाकर उनके दोनों बेटों को अलग कर देता है। ये शख़्स देश भर से कीमती मूर्तियों और रत्नों को चुराता है और उन्हें विदेश में रॉबर्ट जैसे लोगों को बेच देता है।

उसी साल आई फ़िल्म कालीचरण (सुभाष घाइ की सब से पहली डायरेक्टॅर के रुप में बनी फिल्म मे उनके बोले डायलॉग, 'सारा शहर मुझे लायन के नाम से जानता है' को उतनी ही प्रसिद्धि मिली जितनी शोले के डायलॉग 'कितने आदमी थे' को।

अजीत अपनी सारी फ़िल्मों के स्टंट खुद करते थे चाहे वो कितने भी ख़तरनाक क्यों न हों. उन्होंने कभी भी स्टंट के लिए डुप्लीकेट का इस्तेमाल नहीं किया।

अटल बिहारी वाजपेई थे अजीत के ज़बरदस्त फ़ैन

अजीत का ये दुर्भाग्य रहा उनके समकालीन बड़े निर्देशकों जैसे वी शाँताराम, राज कपूर, महबूब ख़ाँ, गुरुदत्त और बिमल रॉय के साथ उन्हें काम करने का मौका नहीं मिला। सर्वकालिक महान निर्देशकों में उन्होंने सिर्फ़ के. आसिफ़ के साथ (मुघल ए आझम मे) काम किया। 70 के दशक के भी बड़े निर्देशकों मनमोहन देसाई, मनोज कुमार और फ़िरोज़ ख़ान ने भी उन्हें काम नहीं दिया।

सुभाष घई की पहली फ़िल्म कालीचरण जिसमें अजीत ने काम किया था बहुत हिट हुई लेकिन इसके बावजूद उन्होंने अजीत को अपनी अगली किसी फ़िल्म में रिपीट नहीं किया। उसी तरह निर्देशक के तौर पर प्रकाश मेहरा की पहली फ़िल्म ज़ंजीर भी बहुत सफल रही लेकिन उन्होंने भी अजीत के साथ दोबारा काम नहीं किया। बीआर चोपड़ा ने अजीत के साथ सिर्फ़ एक फ़िल्म नया दौर की। उसी तरह यश चोपड़ा ने भी उन्हें सिर्फ़ एक फ़िल्म आदमी और इंसान में साइन किया। हाँ देवआनंद और चेतन आनंद ने ज़रूर अजीत की प्रतिभा का लोहा माना और अपनी कई फ़िल्मों में उनसे अभिनय करवाया।

निजी ज़िदगी में बहुत विनम्र और शरीफ़

सालों से अजीत के वन लाइनर्स जैसे 'मोना डार्लिंग' और 'राबर्ट' ने सिनेमा प्रेमियों की कई पीढ़ियों का मनोरंजन किया है। अजीत खुद कहा करते थे मेरे प्रशंसक मेरे बोले डॉयलॉग्स के दीवाने थे। जब उन्हें ये मिलना बंद हो गईं तो कुछ डॉयलॉग उन्होंने अपने मन से बना लिये। इसके अलावा उनके लिली डोंट बी सिली और मोना डार्लिग जैसे संवाद भी सिने प्रेमियों के बीच काफी लोकप्रिय रहे।

 

एक फ़िल्म में अजीत बुरी तरह से पिट चुके और दीवार में ज़ंजीर से बंधे हीरो को लिक्विड ऑक्सीजन में डुबोने का हुक्म देते हैं। उनका डायलॉग है, "लिक्विड इसे ज़िन्दा नहीं रहने देगी और ऑक्सीजन इसे मरने नहीं देगी।"

 

1982 में जावेद जाफ़री ने अजीत के डॉयलॉग की तर्ज़ पर मैगी सॉस की टेग लाइन लिखी थी, 'बोस, पास द सास.' पार्ले जी बिस्किट का प्रचार भी अजीत के ख़ास अंदाज़ में हुआ था. उसकी पंच लाइन थी 'माल लाए हो।'

अजीत ने उस दौर की सभी मशहूर अभिनेत्रियों मधुबाला ,मीना कुमारी,माला सिन्हा,सुरैया,निम्मी,मुमताज के साथ हीरो के रूप में बहुत सारी फिल्मों में काम किया था। वर्ष 1957 में अजीत बी.आर.चोपड़ा की फिल्म "नया दौर" में ग्रामीण युवक की ग्रे शेड भूमिका में दिखाई दिए 

 

अजीत के द्वारा बोले गये पंचलाइन जो काफी मशहुर रही है उसे मे...

·         मोना डार्लिंग

·         सारा शहर मुझे 'लायन' के नाम से जनता है

·         वाटस योर प्रॉब्लम?

·         आई लास्ट माय ग्लासेस

·         स्मार्ट बॉय

·         हेव वैरी इंटरेस्टिंग...

·         लिली डोंट बी सिली

·         मोना लूटलो सोना

·         इसे लिक्विड-आक्सीजन में डाल दो, लिक्विड इसे जीने नहीं देगा, आक्सीजन इसे मरने नहीं देगा

90 के दशक के बाद स्वास्थ्य खराब होने से उस ने फिल्मो मे काम करना कम कर दिया था फिर भी कुछ वर्षो बाद उन्होंने फिल्मो में वापसी की और अपनी दूसरी पारी में जिगर, शक्तिमान, आदमी, आतिश, आ गले लग जा और बेताज बादशाह जैसी अनेक फिल्मों में अपनी अभिनय क्षमता से दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया। कभी कभी उस का अभिनय हीरो पर भी भारी पडते थे।

2.    के. आसिफ (दिग्दर्शक) (14 जून 1922 – 9 मार्च 1971)

पुरा नाम था करीमुद्दिन आसिफ। एक भारतीय फ़िल्म निर्देशक ,फ़िल्म निर्माता तथा पटकथा लेखक थे। ये मुख्य रूप से 1960 में बनी मुग़ल--आज़म के लिए जाने जाते है। वह उत्तर प्रदेश के इटावा में पैदा हुए थे। महज आठवीं जमात तक पढ़े थे। पैदाइश से जवानी तक का वक्त गरीबी में गुजारा था। फिर उन्होंने भारतीय सिनेमा के इतिहास की सबसे बड़ी, भव्य और सफल फिल्म का निर्माण किया। यह इसलिए मुमकिन हुआ, क्योंकि उन्हें सिर्फ इतना पता था कि उनकी फिल्म के लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा.हम बात कर रहे हैं फिल्म इंडस्ट्री के महान डायरेक्टर्स में से एक करीमुद्दीन आसिफ की, जिन्हें लोग के. आसिफ के नाम से जानते हैं और वह फिल्म थी मुगल--आजम

 

के. आसिफ ने तीन बार शादी की...1. अख्तरबानु आसिफ 2. निगार सुल्ताना और 3. सितारादेवी।

सितारादेवी उस वक़्त की सफल एक्ट्रेस हुवा करती थी। निगार सुल्ताना जिस ने मुघल ए आझम मे बहार का किरदार निभाया था। और शुटिंग के अंत तक के. आसिफ ने अख्तरबानु से निकाह कर लिया था। अख्तर दीलीपकुमार की सगी बहन है इसिलिये नाराज होकर दीलीपकुमार मुघल ए आझम के प्रीमीयर मे नही आये थे।

 

पचास के दशक में बनी फ़िल्म 'मुग़ल-ए-आज़म' को बनाने के लिए जिस पागलपन, कल्पनाशीलता और जीवट की ज़रूरत थी, वो के. आसिफ़ में कूट-कूट कर भरी हुई थी। हमेशा चुटकी से सिगरेट या सिगार की राख झाड़ने वाले करीमउद्दीन आसिफ़, अभिनेता नज़ीर के भतीजे थे। शुरू में नज़ीर ने उन्हें फ़िल्मों से जोड़ने की कोशिश की लेकिन आसिफ़ का वहाँ दिल न लगा। नज़ीर ने उनके लिए दर्ज़ी की एक दुकान खुलवा दी। थोड़े दिनों में ही वो दुकान बंद करवानी पड़ी, क्योंकि ये देखा गया कि आसिफ़ का अधिकतर समय पड़ोस के एक दर्ज़ी की लड़की से रोमांस करने में बीत रहा था। नज़ीर ने तब उन्हें ज़बरदस्ती ठेल कर फ़िल्म निर्माण की तरफ़ दोबारा भेजा। के. आसिफ़ ने अपने जीवन में सिर्फ़ दो फ़िल्मों का निर्देशन किया, 1944 में आई 'फूल' और फिर 'मुग़ल-ए-आज़म।‘ लेकिन इसके बावजूद उनका नाम भारतीय फ़िल्म इतिहास में हमेशा स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा।

 

हाल में आई किताब 'ये उन दिनों की बात है' के लेखक यासिर अब्बासी बताते हैं, "मुग़ल-ए-आज़म मैं कम से कम 100 बार देख चुका हूँ। लेकिन आज भी जब वो टीवी पर आती है, तो मैं चैनल 'चेंज' नहीं कर पाता हूँ।" कमाल का 'विज़न' और 'पैशन' था आसिफ़ में. सिर्फ़ दो फ़िल्म करने के बावजूद आसिफ़ को चोटी के निर्देशकों की क़तार में रखा जाता है।

 

संवाद थे 'मुग़ल--आज़म' की जान।

यूँ तो 'मुग़ल-ए-आज़म' का हर पक्ष मज़बूत है, लेकिन इस फ़िल्म को दर्शकों के बीच लोकप्रिय बनाने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई थी इसके संवादों ने। यासिर अब्बासी बताते हैं कि अनारकली को ज़िंदा चुनवाए जाने से पहले का दृश्य था, जिसमें अकबर उनसे उनकी आख़िरी इच्छा पूछते हैं और वो कहती हैं कि वो एक दिन के लिए भारत की मलका-ए-आज़म बनना चाहती हैं।"

आसिफ़ ने अपने तीनों संवाद में लेखकों से पूछा कि इस पर अनारकली को क्या कहना चाहिए। अमानउल्लाह साहब जो कि ज़ीनत अमान के पिता थे और एहसान रिज़वी ने अपने लिखे डायलॉग सुनाए। इसके बाद आसिफ़ साहब ने वजाहत मिर्ज़ा की तरफ़ देखा।

"वजाहत मिर्ज़ा ने अपने मुंह से पान की पीक उगालदान में डाल कर कहा, 'ये सब 'डायलॉग' बकवास हैं. इतने शब्दों की ज़रूरत क्या है?"

उन्होंने फिर अपने पानदान से एक पर्चा निकाल कर पढ़ा, अनारकली सिर्फ़ सलाम करेगी और सिर्फ़ ये कहेगी कि 'शहनशाह की इन बेहिसाब बख़शीशों के बदले में ये कनीज़ जलालउद्दीन मोहम्मद अकबर को अपना ये ख़ून माफ़ करती है।" मिर्ज़ा का ये कहना था कि आसिफ़ ने दौड़ कर उन्हें गले लगा लिया और वहाँ मौजूद दोनों डायलॉग लेखकों ने अपने कागज़ फाड़ कर फेंक दिए।"

 

लच्छू महाराज ने सिखाया कथक मधुबाला को

जब 'मोहे पनघट पे नंदलाल छेड़ गयो' गाना फ़िल्माया जा रहा था तो पहले आसिफ़ और फिर नृत्य निर्देशक लच्छू महाराज नौशाद के पास आ कर बोले, "नौशाद साहब ये गाना ऐसा बनाएं कि वाजिद अली शाह के दरबार के ज़माने की ठुमरी और दादरा याद आ जाए।"

नौशाद ने कहा कि कथक नृत्य में चेहरे और हाथ के भाव सबसे महत्वपूर्ण होते हैं। इसे फ़िल्म में मधुबाला पर फ़िल्माया जाएगा। लेकिन क्या वो इसके साथ न्याय कर पाएंगी, क्योंकि वो कत्थक नृत्यागना तो हैं नहीं?" लच्छू महाराज ने कहा, ये आप मेरे ऊपर छोड़ दीजिए. उन्होंने शूटिंग से पहले मधुबाला से नृत्य का घंटों अभ्यास कराया। पूरा गाना उन पर फ़िल्माया गया और किसी 'डुप्लीकेट' का इस्तेमाल नहीं किया गया।"

 

शुटिंग का जलवा ।

 

दिलचस्प बात ये है कि इस गाने की शूटिंग देखने कई बड़े लोग सेट पर पहुंचते थे।चीन के प्रधानमंत्री चू एन लाई, मशहूर शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ और एक और शख्श ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने मुग़ल-ए-आज़म की शूटिंग देखी। यासिर अब्बासी बताते हैं, "उस ज़माने में भुट्टो मुंबई में ही रहा करते थे। इस गाने की शूटिंग जितने दिन चली, वो रोज़ आए शूटिंग देखने। भुट्टो और आसिफ़ में गहरी दोस्ती थी। वो जब भी सेट पर होते थे, आसिफ़ साहब और सेट पर मौजूद लोगों के साथ खाना खाते थे।"

 

"उस समय किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि मुग़ल-ए-आज़म के सेट पर मौजूद रहने वाला ये शख़्स एक दिन पाकिस्तान का प्रधानमंत्री बनेगा."

 

बेल्जियम से मंगाए गए थे शीशमहल के शीशे

इस फ़िल्म की जान थी के. आसिफ़ का 'अंटेशन टू डिटेल' यानी छोटी-छोटी चीज़ को ध्यान से देखने की कला। फ़िल्म में जोधाबाई द्वारा पहने गए कपड़ों को हैदराबाद के सालारजंग म्यूज़ियम से उधार लिया गया था। सेट के खंभे, दीवारें और मेहराब बनाने में महीनों लग गए थे। ख़तीजा अकबर अपनी किताब 'द स्टोरी ऑफ़ मधुबाला' में लिखती हैं, "शीश महल का सेट बनने में पूरे दो साल लग गए। आसिफ़ को इसकी प्रेरणा जयपुर के आमेर के क़िले में बने शीशमहल से मिली थी. उस समय भारत में उपलब्ध रंगीन शीशों की गुणवत्ता उतनी अच्छी नहीं थी। उन शीशों को बहुत ज़्यादा क़ीमत चुका कर बेल्जियम से मंगवाया गया. इससे पहले ईद आ गई। रसम का पालन करते हुए मुग़ल-ए-आज़म के फ़ाइनांसर शाहपूरजी मिस्त्री आसिफ़ के घर पर ईदी लेकर पहुंचे। वो एक चाँदी की ट्रे पर कुछ सोने के सिक्के और एक लाख रुपये ले कर गए. आसिफ़ ने पैसे उठाए और मिस्त्री को वापस करते हुए कहा, 'इन पैसों का इस्तेमाल, मेरे लिए बेल्जियम से शीशे मंगवाने के लिए करिए।"

 

कैसे रचा गया था 'प्यार किया तो डरना क्यागीत

'मुग़ल-ए-आज़म' फ़िल्म का सबसे मशहूर गाना था, 'प्यार किया तो डरना क्या...', इसको लिखने और संगीत में ढालने में नौशाद और शकील बदायूंनी को पूरी रात लग गई।यासिर अब्बासी बताते हैं, "जब आसिफ़ ने नौशाद को उस गाने की 'सिचयुएशन' बताई तो उस ज़माने में एक और फ़िल्म बन रही थी अनारकली, जो इसी तरह की कहानी पर आधारित थी। नौशाद ने उनसे कहा कि दोनों फ़िल्मों में बहुत समानता है। उनका गाना रिकॉर्ड हो चुका है जिसे मैंने सुना भी है। अगर हम भी उसी तरह का गाना चुनेगें तो ये 'रिपीटेशन' लगेगा। आप इस 'सिचयुएशन' को बदल क्यों नहीं देते।

आसिफ़ साहब ने कहा कि हम ऐसा नहीं करेंगे। मैंने ये चुनौती स्वीकार कर ली है। अब आप की बारी है इस पर खरा उतरने की। जब इसे संगीत में ढालने की बारी आई तो सबसे मुश्किल काम था इसे लिखना।

 

शाम को छह बजे जब सूरज ढ़ल रहा था नौशाद और शकील बदायूंनी ने अपने आप को एक कमरे में बंद कर लिया। शकील साहब ने क़रीब एक दर्जन मुखड़े लिखे, जिसमें कभी उन्होंने गीत का सहारा लिया तो कभी ग़ज़ल का। लेकिन बात बनी नहीं। कुछ देर में नौशाद का पूरा कमरा काग़ज़ की चिटों से भर गया। उन्होंने पूरी रात न कुछ खाया और न ही पिया। काफ़ी देर बाद नौशाद को एक पूर्बी गीत का मुखड़ा याद आया जो उन्होंने अपने बचपन में सुना था, 'प्रेम किया का चोरी करी.' मैंने शकील साहब को ये सुनाया। उन्हें ये पसंद आया। मैंने हारमोनियम पर इसकी धुन बनाई और शकील साहब ने उसी वक़्त लिखा -

प्यार किया तो डरना क्या

प्यार किया कोई चोरी नहीं की..."

"जब हम सुबह ये गाना 'कंपोज़' कर बाहर निकले तो हमारे सिर पर सूरज चमक रहा था। मुझसे अक्सर पूछा जाता है कि पुराने गानों की लोकप्रियता का राज़ क्या है? मेरा जवाब होता है कि उनको बनाने में पूरी-पूरी रात बीत जाती थी, तब जा कर उन्हें अंतिम रूप मिलता था."

प्यार किया तो डरना क्या केवल ये एक गीत का बजेट 10 मिलियन का हुवा जब की उस वक़्त इतने बजट मे एक फिल्म बन जाती थी। शकील बदायुनी गीतकार ने यह गीत कुल मिलाकर 105 बार लिखा और म्युजिक डाररेक्टॅर नौशाद इसे अप्रुव करे इसिलिये ये कसरत करनी पडी। ये गीत शीशमहल मे फिल्माना था जहा चारो ओर शीशे ही शीशे लगे थे।

मुघल ए आझम मे सलीम को बोल दिया जाता है की अनारकली के साथ उस की शादी नही होगी और अनारकली को मजबुर किया जाता है की वो सलीम को भुल जाये तो ही उस की कैद समाप्त हो सकती है। अनारकली को हुक्म दिया जाता है की सरे आम दरबार मे वो सलीम को रीजेक्ट करेगी। दरबार मे महाराजा अकबर और जोधाबाइ और गायिका बहार तीनो फुल फोर्म मे तशरीफ लाते है और सलीम मुह लटकाये आकर अपना स्थान ग्रहण कर लेता है। गीत का शुरुआत का म्युजिक इतना क्लासिक और दमदार है की तबले और सुरो के ताल मे हम खो जाते है। अनारकली गीत की शुरुआत मे लाइन गाती है....’इन्सान कीसी से दुनिया मे एक बार मुहब्बत करता है। इस दर्द को लेकर जीता है इस दर्द को लेकर मरता है....’

आप सोचिये एक मामुली कनीज अपने महाराजा के सामने मौत के खौफ के बावजुद अपने प्यार पर सबकुछ न्योछावर कर ने के लिये ये शब्द गाती है। और आप देखिये इस लाइन गाने के बाद फिल्म मे अकबर बने प्रुथ्वीराज कपुर ने क्या एक्स्प्रेशन दिये है। माशाअल्लाह पुरे दरबार मे अपनी ही प्रजा के सामने एक मामुली कनीज क्या अपमान करती है और क्या हावभाव के साथ आगे की लाइन अनारकली बोलती है...’प्यार किया तो डरना क्या जब प्यार किया तो डरना क्या?’ इस के साथ जैसे सुरज उगता है ऐसे एक्श्प्रेशन सलीम यानी दीलीप कुमार ने दिये है और सुरज वीलीन होता है ऐसे एक्श्प्रेशन बहार (निगार सुलताना) ने दिये है और वो बहार धीरे धीरे सलीम के सिहासन के पिछे वीलीन हो जाती है ऐसा अदभुत द्रश्य लिया गया है। सलीम जोश के साथ पुरे दरबार और बादशाह अकबर के सामने जीत के हावभाव से देखता है।

इसी गीत मे एक अंतरा आता है...

’छुप ना सकेगा इश्क हमारा...चारो तरफ है उन का नजारा...” इस बोल के साथ शीशमहल की चारो ओर लगे शीशे मे केवल अनारकली बादशाह को दिखती है जो झुम झुम के नाच रही है....

ये द्र्श्य के लिये एक ऐसा माहोल चाहिये था जहा आवाज गुंजती सुनाइ दे। अब उस वक़्त ऐसे साउंड या साधन उपलब्ध नही थे जो साउंड को रीवर्स कर सके (जिसे हम इको साउंड कहते है)...मतलब आप की आवाज की प्रतिध्वनी सुनाइ दे ऐसी कोइ सुविधा नही थी। इसिलिये संगीतकार नौशाद ने ये गीत लतादीदी से स्टुडियो के बाथरुम मे रेकोर्ड करवाया। इसिलिये ये अंतरा आप सुनोगे तो लगेगा की लतादीदी की आवाज गुंज रही है और जैसे अनारकली की आवाज चारो ओर से घुम फिरकर बादशाह अकबर का नशा चकनाचुर कर रही है। व्होट अ इनक्रेडिबल एंड एक्सेलंट सिच्युएशन !!

इस गीत के रेकोर्डिंग के बाद नौशाद तो खुश थे ही मगर के. आसिफ ने इस बेहतरीन गीत को ज्यादा पैसा खर्च कर के कलर टेकनोलोजी मे चेंज करवाया। हाला की 2004 मे ये पुरी फिल्म रंगीन कर दी गइ। इसिलिये आज तो ये फिल्म ब्लेक एंड व्हाइट और कलर दोनो मे उपलब्ध है।

 

बड़े ग़ुलाम अली ख़ान ने लिए थे गाने के लिए 25000 रुपये

एक दिन आसिफ़ ने नौशाद से कहा कि वो स्क्रीन पर तानसेन को गाते हुए दिखाना चाहते हैं। सवाल उठा कि इसे गाएगा कौन? नौशाद ने कहा कि इसे इस समय के तानसेन बड़े ग़ुलाम अली ख़ान से गवाना चाहिए, लेकिन वो इसके लिए तैयार नहीं होंगें। क्युकी वे फिल्मो के लिये कभी गाना नही गाते थे।

यासिर अब्बासी बताते हैं, "आसिफ़ ने कहा ये आप मेरे ऊपर छोड़ दीजिए। आप बस उनसे मिलने का वक़्त तय कीजिए। जब ये दोनों ख़ान साहब से मिलने गए तो उन्होंने ये कहते हुए गाने से इनकार कर दिया कि फ़िल्मों में गायकों पर बहुत बंदिशें लगा दी जाती हैं।"

 

आसिफ़ साहब ने कहा कि खान साहब ये गाना तो आप ही गाएंगे। ये सुनकर बड़े ग़ुलाम अली ख़ान ने नौशाद को एक तरफ़ ले जा कर कहा, आप किस पागल को मेरे पास ले आए हैं? मेरे मना करने पर भी ये कह रहा है कि गाना आप ही गाएंगे। मैं इस शख़्स से अपने गाने की इतनी तगड़ी फ़ीस मांगूँगा कि ये यहाँ से भाग खड़ा होगा।"

 

बड़े ग़ुलाम अली ने आसिफ़ से पूछा, आप मुझे कितने पैसे देंगे? आसिफ़ ने कहा, 'जो आप चाहें.' ख़ान साहब ने जवाब दिया, 'पच्चीस हज़ार रुपये'

 

आसिफ़ बोले, 'सिर्फ़ पच्चीस हज़ार?' आप तो इससे कहीं ज़्यादा के हक़दार हैं।"

 

बड़े ग़ुलाम अली ख़ान इस तरह मुग़ल-ए-आज़म के लिए पच्चीस हज़ार रुपये पर गाने के लिए राज़ी हुए जबकि उस समय के चोटी के गायकों लता मंगेशकर और मोहम्मद रफ़ी को एक गाने के लिए सिर्फ़ 500 से 1000 रुपये ही मिलते थे।"

 

बड़े ग़ुलाम अलीख़ाँ साहब ने मुग़ल-ए-आज़म फ़िल्म का वो मशहूर गाना गाया .........'प्रेम जोगण बनकेसुन्दर पिया ओर चले.' इस गीत पर दीलीप कुमार और मधुबाला पर जो सीन फिल्माया गया है, आप सभी वाचको को निवेदन है की एक बार ये सीन देखो...प्रेम की क्या पराकाष्ठा दिखाइ गइ है। और हैरानी की बात ये है की इस गीत के शुटिंग के दौरान दोनो कलाकारो के बीच बातचीत के भी संबंध नही थे।

 

मधुबाला और दिलीप कुमार के बीच बातचीत नहीं।

मुग़ल-ए-आज़म बनने के अंतिम चरण में मधुबाला और दिलीप कुमार के बीच बातचीत बंद हो गई थी, क्योंकि मधुबाला ने अपने परिवार के दबाव के चलते दिलीप कुमार का शादी का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया था। फ़िल्म में दुर्जन सिंह का रोल करने वाले अजीत ने एक बार लिखा था, "एक सीन में दिलीप कुमार को मधुबाला को थप्पड़ मारना था। जब कैमरा रोल हुआ तो दिलीप कुमार ने मधुबाला को इतनी ज़ोर से थप्पड़ मारा कि वहाँ मौजूद सारे लोग स्तब्ध रह गए। शॉट तो ओके हो गया लेकिन लोगों की समझ में नहीं आया कि अब आगे क्या होगा? क्या मधुबाला सेट से वॉक-आउट कर जाएंगी? क्या शूटिंग रोकनी पड़ेगी? इससे पहले कि मधुबाला कुछ कहतीं, आसिफ़ उन्हें कोने में ले जा कर बोले, 'मैं आज बहुत ख़ुश हूँ, क्योंकि ये साफ़ है कि वो (दीलीप कुमार) अभी भी तुम्हें प्यार करता है। एक आशिक़ के अलावा, कोई और अपनी माशूक़ा से ऐसा कैसे कर सकता है?" ये दिग्दर्शक के.आसिफ की कमाल थी की आगे कुछ नही हुवा।

 

मधुबाला के पिता के रमी में उलझाया के आसिफ़ ने

आसिफ़ की मुश्किल ये होती थी कि मधुबाला के पिता अताउल्लाह ख़ान अक्सर फ़िल्म की शूटिंग के दौरान सेट पर मौजूद रहते थे. लेकिन उन्होंने उनसे अपना पिंड छुड़ाने का नायाब तरीक़ा ढ़ूढ़ निकाला।

मशहूर फ़िल्म इतिहासकार बनी रयूबेन अपनी किताब 'फॉलीवुड फ़्लैशबैक-अ कलेक्शन ऑफ़ मूवी मेमॉएर्स' में लिखते हैं, "जिस दिन दिलीप कुमार और मधुबाला के बीच अंतरंग प्रेम दृश्य फ़िल्माए जाने होते थे, आसिफ़ ने मधुबाला के पिता अताउल्लाह ख़ान को सेट से दूर रखने के लिए एक तरकीब निकाली। आसिफ़ को पता था कि अताउल्लाह ख़ान रमी खेलने के बहुत शौक़ीन थे। उन्होंने अपने पब्लिसिस्ट तारकनाथ गांधी को कुछ हज़ार रुपए दे कर कहा, आज से तुम्हारा काम, अगले कुछ दिनों तक ख़ान साहब के साथ रमी खेलना होगा और तुम जानबूझ कर हर बाज़ी हारोगे।" और सही मे दीलीपकुमार और मधुबाला के बीच के अंतरंग द्रश्यो के फिल्माने के वक़्त रमी हमेशा शुरु रही।

 

फ़िल्म पूरी करने के लिए सोहराब मोदी से किया संपर्क

सालों तक शूटिंग चलने के कारण ये फ़िल्म ओवर बजट हो गई और फ़िल्म के फ़ाइनांसर शाहपुरजी मिस्त्री यहाँ तक सोचने लगे कि इस फ़िल्म को के. आसिफ़ से लेकर सोहराब मोदी से निर्देशित करवाया जाए।

यासिर अब्बासी बताते हैं, "इस फ़िल्म को बनने में बहुत समय लगा। दस साल का अर्सा गुज़रा। ज़ाहिर है सारा बजट नियंत्रण के बाहर चला गया। आसिफ़ साहब पानी की तरह पैसा बहाते थे, क्योंकि उनको क्वॉलिटी चाहिए थी। एक दिन तंग आकर शाहपुरजी ने तय किया कि अब बहुत हो गया मैं अब डायरेक्टर ही बदल दूंगा।"

उन्होंने सोहराब मोदी से बात की और एक दिन वो उन्हें शीशमहल का सेट दिखाने ले आए। आसिफ़ साहब वहाँ मौजूद थे। थोड़ी देर तक वो ख़ामोशी से देखते रहे, फिर वो दोनों के पास जा कर बोले, सेठजी आपको जिससे चाहें ये फ़िल्म मुकम्मल करवानी हो, करवा लीजिए। लेकिन ये सेट मैंने लगाया है, और यहाँ शूटिंग मैं ही पूरी करूंगा. अगर इसके बाद किसी ने इस सेट पर क़दम रखा तो मैं उसकी टांगें तोड़ दूंगा।"

 

केआसिफ़ के पास अपनी कार भी नहीं थी

मुग़ल-ए-आज़म अपने ज़माने की सबसे मंहगी और सफल फ़िल्म थी, लेकिन इसके निर्देशक के. आसिफ़ ताउम्र एक किराए के घर में रहे और टैक्सी पर चले

यासिर अब्बासी बताते हैं, "जब फाइनांसर शाहपुरजी बहुत तंग आ गए तो उनसे एक बार नौशाद ने पूछा कि अगर आप को आसिफ़ से इतनी शिकायत है, तो आपने उनके साथ ये फ़िल्म बनाने का फ़ैसला क्यों किया? शाहपुरजी ने एक ठंडी सांस लेकर कहा कि नौशाद साहब एक बात बताऊँ, ये आदमी ईमानदार है।इसने इस फ़िल्म में डेढ़ करोड़ रुपए ख़र्च कर दिए हैं, लेकिन उसने अपनी जेब में एक फूटी कौड़ी भी नहीं डाली है। बाक़ी सभी कलाकारों ने अपना कॉन्ट्रैक्ट कई बार बदलवाया, क्योंकि वक़्त गुज़रता जा रहा था। लेकिन इस शख़्स ने पुराने कॉन्ट्रैक्ट पर काम किया और कोई धोखाधड़ी नहीं की। कोई पैसे का ग़बन नहीं किया। ये आदमी आज भी चटाई पर सोता है, टैक्सी पर छह आना हर मील का किराया देकर सफ़र करता है और सिगरेट भी दूसरों से मांग कर पीता है। ये आदमी बीस घंटे खड़े हो कर लगातार काम करता है और हम लोग हैरान रह जाते हैं।"

 

अब आते है मुघल ए आझम की कहानी पर....

कहानी कुछ इस प्रकार की है। महन मुघल सम्राट अकबर और महारानी जोधाबाइ के सुपुत्र सलीम और अकबर दरबार की प्रख्यात न्रुत्यांगना अनारकली के प्रेम और पिता अकबर और पुत्र सलीम के बीच के लडाइ की।

फिल्म मुघल ए आझम में कहानी कुछ इस प्रकार से दिखाई है|

मुघल सम्राट अकबर (पृथ्वीराज कपूर) और महारानी जोधाबाई (दुर्गा खोटे) के यहा बेटे शेह्जादे सलीम (दीलीप कुमार) का जन्म बड़ी मुश्किल से हुवा होता है| जब सलीम का जन्म होता है और एक कनीज आकर बादशाह को ये खुशखबरी सुनाती है तब अकबर बोलते है की ‘मांग लो जो तुम्हे चाहिये”

वो कनीज थी जिल्लो जो अनारकली की मा थी और वो बोलती है की “जहापनाह आप का ये वचन मै जरुरत पडने पर मांग लुंगी।“

सलीम की परवरीश बड़े लाड से होती है| बचपन में ही सलीम ऐयाशी में डूब जाता है और इसीलिए अकबर उसे राज्य से दूर अस्त्र शस्त्र की पढ़ाई के लिए दूर भेज देता है| बाद में एक युद्ध जीतने के बाद सलीम और उन का साथी सेनापती दुर्जनसिंह (अजीत) का बड़े शान से स्वागत किया जाता है| सलीम की वापसी की खुशी में एक संगीत समारोह का आयोजन होता है| जिन में सलीम का मन जीतने के लिए कनीजो में कोम्पीटीशन होती है, जिन में मुख्य राजनर्तकी बहार (निगार सुल्ताना) प्रमुख है|

फिर एक मुर्तिकार की मुर्ती देखने के लिये सलीम को आमंत्रित किया जाता है। सलीम की तीरन्दाजी देखने के लिये उसे तीर चलाने को कहा जाता है। सलीम तीर चलाता है लेकिन बाद मे पता चलता है की वो मुरत के रुप मे खुद नादिरा खडी होती है। सलीम खुश होकर उसे न्रुत्य दरबार मे आमंत्रित करता है जहा नादिरा और बहार के बीच कोम्पिटिशन होती है। सलीम बहार को फुल देता है और नादिरा को काटे। बाद मे शहेनशाह अकबर नादिरा के न्रुत्य से खुश होकर उसे अनारकली का खिताब देते है। बाद मे सलीम और अनारकली मे प्यार हो जाता है और शहेनशाह अकबर जब सलीम को लडाइ मे भेजता है तब अनारकली को गिरफतार करवाता है। सलीम अनारकली से शादी करना चाहता है पर अकबर इसकी इजाज़त नहीं देते। सलीम बगावत की घोषणा करता है। अकबर और सलीम की सेनाओं में जंग होती है और सलीम पकड़ा जाता है। सलीम को बगावत के लिये मौत की सज़ा सुनाई जाती है पर आखिरी पल अकबर का एक मुलाज़िम अनारकली को आता देख तोप का मुँह मोड देता है। इसके बाद अकबर अनारकली को एक बेहोश कर देने वाला पंख देता है जो अनारकली को अपने हिजाब में लगाकर सलीम को बेहोश करना होता है। अनारकली ऐसा करती है। सलीम को ये बताया जाता है कि अनारकली को दीवार में चुनवा दिया गया है पर वास्तव में अनारकली की मा एन्ड मौके पर बादशाह से उस का वचन याद दिलाती है और अपनी मांग रखती है की अनारकली को जिन्दा रखा जाये और इसिलिये उसी रात अनारकली और उसकी माँ को राज्य से बाहर भेज दिया जाता है।

य़े संक्षिप्त कहानी के अंश है। वास्तव कहानी ये है की अकबर का मुल नाम जलालुदिन मोहम्मद था। अकबर नाम उसे अपने पिताजी हुमायु ने दिया था। मुघल साम्राज्य के बारे मे हमने शिक्षा के दौरान यही सिखाया जाता है की सब से क्रुर बादशाह औरंगजेब था जब की सब से क्रुर महाराजा अकबर ही थे। अकबर बादशाह थे उस दौरान अगर को कोइ सुन्दर स्त्री अपने पति की शहादत के बाद सती होने जाती थी तब अकबर के सैन्य उसे पकडकर मजबुरन बादशाह के हरम मे पहुचा देते थे और उसे अकबर मजबुरी का फायदा उठाकर अपनी रखैल या बेगम बना लेता था।

अकबर ने एक फरमान जारी किया था की राज्य मे एक दिन अपने दरबार के हर के आदमी अपनी पत्नियो का नग्न प्रदर्शन करे जिसे खुदारोज (प्रमोद दिवस) के नाम से मनाया जाता था। ये करने के पिछे अकबर का एक ही मक्सद रहता था की उस दिन आयी नग्न स्त्रीयो मे से अपने हरम के लिये सुन्दर स्त्रीया चुन ना। अकबर से हारे हर राजा या सेनापतियो की पत्नी या बेटी अकबर के हरम का शिकार होती थी। इसिलिये बहुत सी स्त्रीयो ने उस वक़्त आत्महत्या करी थी।

अकबर को मुस्लिम के अलावा दुसरे धर्मो प्रती हमेशा से ही आदर रहा था। उम्र जैसे बढती गइ अकबर का हिन्दु धर्म से काफी लगाब बढ गया था। इसिलिये अपने पुर्वजो से विपरीत अकबर ने बहुत सी हिन्दु राजकुमारीयो के साथ विवाह किया था। कहा जाता है की अकबर की कम से कम 5000 बेगम थी। ये आकडे तो इतिहास मे छपे है बाकी जो गीनती मे नही है वो अलग से।

सलीम का मुल नाम ‘शाहजादा मिर्झा मुहम्मद सलीम शाह’ उर्फे ‘नुर उद दिन मुहमम्द सलीम’ था। फिल्म मे दिखाया है की सलीम महाराजा अकबर और महारानी जोधाबाइ का सुपुत्र है। वास्तव मे सलीम की माता का नाम मरियम उझ झमानी। इतिहास कारो का कहना है की जोधाबाइ का मुस्लिम नाम यही है, लेकिन वास्तव मे मरियम उझ झमानी कोइ अलग स्त्री है। हकीकत मे सलीम जोधाबाइ से बेहद नफरत करता था...क्युकी जोधाबाइ सम्राट अकबर की फेवरीट रानी थी इसिलिये शायद सलीम हमेशा शराब मे धुत रहता था जब तक अनारकली उस के जीवन मे नही आइ। सलीम ही आगे जाकर बादशाह ‘जहांगीर’ के नाम से प्रसिद्ध हुए।

लेकिन जो इतिहास बनाया गया वोही फिल्माया गया है।

गीत:

1.

मोहे पनघट पे नन्दलाल छेड गयो रे...

लता दीदी

4:02

2.

प्यार किया तो डरना क्या...

लता दीदी

6:21

3.

मुहब्बत की जुठी कहानी पे रोये...

लता दीदी

2:40

4.

हमे काश तुम्हे मुहोब्बत.....

लता दीदी

3:08

5.

बेकश पे करम कीजीये....

लता दीदी

3:52

6.

तेरी मेहफिल मे किस्मत आजमाकर...

लता दीदीशमशाद बेगम

5:05

7.

ये दिल की लगी......

लता दीदी

3:50

8.

ये इश्क ये दुनियावाले.....

लता दीदी

4:17

9.

खुदा निगेहबान.....

लता दीदी

2:52

10.

ए मुहोब्बत झिन्दाबाद....

मुहम्न्मद रफी साहब

5:03

11.

प्रेम जोगन बन के....

बडे गुलाम अलीखान

5:03

12.

शुभ दिन आयो राजदुलारा...

बडे गुलाम अलीखान

2:49

कुल मिनिट्स्

49:02

ये फिल्म की शुरुआत 1946 से हुइ थी और खत्म करते करते 1960 आ गया था। मुघल ए आझम का प्रिमियर शो मराठा मन्दिर सिनेमाग्रुह रखा गया था। मराठा मन्दिर वो सिनेमाग्रुह है जहा पर शाहरुख खान-काजोल की सुपर हिट फिल्म दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे लगातार 26 साल से दिखाइ जा रही है। केवल लोकडाउन मे नही चल रही थी लेकिन आज के दिन भी ये सिलसिला शुरु है। इस से पहले इस सिनेमा ग्रुह मे शोले फिल्म करीब 20 साल तक चली थी। जब मुघल ए आझम का प्रिमियर शो था तब लोगो की लाइन लगी थी। राजकपूर, वहीदा रहेमान जैसी हस्तिया मौजुद रही थी। दीलीप कुमार, मधुबाला और प्रुथ्वीराज कपूर के बडे बडे होर्डिंग्स लगाये गये थे। बस एक दीलीप कुमार मौजुद नही रहे थे...क्यु वो आगे लिख चुका हु।

दोस्तो बेशक इतिहास जो भी हो लेकिन मुघल ए आझम न देखी तो बोलीवुड मे कुछ नही देखा। देखियेगा जरुर....चलिये विदा लेता हु...फिर आउंगा एक और ब्लोक बस्टर मुवी के साथ...लेकिन जाते जाते एक लिंक देता हु....ये एक्ट्रेस कौन है वो कोमेंट मे जरुर लिखियेगा। हा गुगल का सहारा न लेना प्लीज....चलिये आज इतना ही.....।

https://www.youtube.com/watch?v=cEhaEpkS8ns

# नॉन स्टॉप राइटिंग चेलेन्ज 2022 भाग 7

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20 Comments

🤫

29-May-2022 10:06 PM

वेटिंग फ़ॉर न्यू अपडेट भैया ...

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🤫

29-May-2022 09:46 PM

दोनों सीरीज पढ़ी! काफ़ी मेहनत की हैं आपने इतनी जानकारी जुटाने में। ये वाकई काबिलेतारीफ हैं। अब तो इसके पार्ट्स के आने का इंतजार रहता है। नो डाउट अकबर एक क्रूर और वहशी शहंशाह था। उसके हरम में हजारों स्त्रियां थीं ,, एक समय मे अकबर के नाम से ही लोग कांपते थे। लेकिन एक समय बाद उसकी क्रूरता कम हुई थी। जब उसके दरबार मे नवरत्नों को स्थान मिला और उसने कूटनीति से कई महत्वपूर्ण निर्णय लिए। जहां तक हमे खबर है अकबर नाम उसे हुमायूं ने नही दिया था। क्योंकि हुमायूं की मृत्यु बहुत पहले ही हो चुकी थी। और रही बात मरियम उज्ज्मनी अर्थात जोधा बाई की तो इतिहास में जोधा नाम की कोई शख़्सियत नही है। राजपूताने में सबसे बड़ी लड़की को जोधा नाम से पुकारा जाता है। बस जोधा की इतनी ही कहानी है जो असल में हरका बाई और बाद में मरियम उज्ज्मनी के नाम से इतिहास में दिखती है।

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Arman

29-May-2022 11:17 AM

वाह bhai इतनी सारी जानकारी आप लाते कहाँ से है बहुत मेहनत है आपकी सलाम है आपको

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PHOENIX

29-May-2022 11:51 AM

Thank you

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