क्षणिकाएं–८
क्षणिकाएं–८
(१)
अपनी ही परछाईं से अब तो डर लगता है
इस शहर में साहब अंधेरों का राज चलता है।।
(२)
कौन बांध सका है मुट्ठी में रेत को
वक़्त के साथ फिसल ही जाते हैं
चाहो तो प्यार से सहला लो इनको
इंसान हों या रिश्ते ज़ोर जबरदस्ती से मर जाते हैं।।
(३)
भरोसा दिला के घात करूं ये मेरी फितरत नहीं
विश्वास करो न करो, तुम्हे हक है
मैं एक इंसान हूं कोई फरिश्ता तो नहीं।।
(४)
शब्दों का भेद मुझे नहीं आता,
कहता हूं जो मन भाता।
जैसे चाहे स्वीकार करो,
देखो कांटों की माला सा या फिर फूलों का हार कहो।
आभार – नवीन पहल – २८.०६.२०२२ 🌹🙏👍😀
Pallavi
29-Jun-2022 06:35 PM
Nice post
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Shnaya
29-Jun-2022 03:59 PM
बेहतरीन
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