बहते लहू के कण
बहते लहू कण
बहते लहू के कण जिस्म से
जमीं पर फैलकर बिखरने को है
आज आखिरी घड़ी में गिरकर
धरा पर मोतियों से संवरने को है।
कब तलक रहेंगे हम युद्ध से भाग-भाग
बातचीत से भी कोई समाधान नही
कब तलक करते रहेंगे हम तुझे माफ-माफ
बिना दण्ड मिलता कहीं ज्ञान नही।
आज है वो घड़ी जब मशाले हैं पड़ी
श्मशान आज फिर सुलगने को है
बहते लहू के कण जिस्म से
जमीं पर फैलकर बिखरने को है।
न तुझे कोई ढंग है, मन है स्याह में व्याप्त क्यों?
न शान्ति अपूर्णता, अक्षम्य तेरा अपराध क्यों?
ये युद्ध है विचार ले, घाव अब हजार ले
बहते लहू को जिस्म में दबोच ले
होना बार-बार है, जो उठ गया हथियार है
कोई निरपराध है तो जंग रोक ले
प्राण जाए पर कहीं, मान न जाने पाए
आज आन भाल पर चमकने को है
है धरा पर धर चुका, बेन्धता जो बढ़ चुका
आज भूमि रक्त से रंगने को है।
बहते लहू के कण जिस्म से
जमीं पर फैलकर बिखरने को है
आज आखिरी घड़ी में गिरकर
धरा पर मोतियों से संवरने को है।
Aliya khan
02-Aug-2021 09:26 AM
Nice
Reply
मनोज कुमार "MJ"
02-Aug-2021 04:33 PM
Thank You
Reply