काश
#काश
तुझ तक आने के लिए
एक विद्रोह ही तो करना था
एक रेखा मर्यादा की ही तो लाखनी थी
बस कुछ नाराज होकर तो करना था
चुपके से घर से ही तो निकलना था
पर ये कर नाज़ी
इसलिए तेरी हो नक्की
पता नहीं सही गलत का
तुझे पाती तो क्या क्या खोती
ज़िंदगी कितनी रंगीन होती है मेरी
पर अब भी तो मरुस्थल ही है तो
बसफ़ेंडें ही हैं तो दिखती है
मन किसी का
तनाव पर कोई और इंतज़ार किया किसी का कोई और है
हम दो
नदियों के किनारे है जो मिलते नहीं
साथ चलते हैं
साथ साथ होते नहीं हैं
काश कुछ को
मना लिया जाता है
कुछ मान गए होते हैं
तो आज हम सूखे पत्तों कीive
िक यों ना बिखरे होते हैं ....…।
तैयार
लम
नीलम गुप्ता