Kavita Jha

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वो किसान हैं जनाब #लेखनीदैनिक कहानी प्रतियोगिता -21-Jul-2022

वो किसान  हैं जनाब

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शारदापुर (बिहार मिथिला का एक छोटा सा गाँव)

किसान एक ऐसा शब्द है.. जिसके बारे में जितना कहा जाए उतना कम है। वैसे आधुनिकता की चकाचौंध में किसान को नजर अंदाज किया जा रहा है... हम भूल ही जाते हैं कि वो नहीं है तो हम भी नहीं रहेंगे। वो हमारे लिए अन्नदाता हैं...  भगवान की तरह पूजनीय हैं देश के किसान।
हमारे देश के प्रत्येक राज्य का कुछ हिस्सा तो खेत खलिहान में आता ही हैं.. जहाँ किसान अन्न उपजाता है..  सिर्फ अपने लिए नहीं बल्कि अपने राज्य के लिए.. और आस पास के राज्यों के लिए भी। पर हर राज्य के किसान का जीवन बहुत कष्टदायक ही बीतता है...  अधिकतर किसान... सबके अन्नदाता... खुद कई कई रात भूखे ही सोते हैं।

अभी दिल्ली में चल रहे किसान आंदोलन की सब आलोचना कर रहे हैं..  पर क्या कोई उनके कष्टों को समझ पा रहा है।  क्यों वो अपने खेत खलिहान छोड़ सड़कों पर धरना दिये हैं।

  अभी हरियाणा और पंजाब के किसान चर्चा का विषय हैं..  पर हर राज्य के किसान का बुरा हाल है। कई किसान अपने परिवार समेत आत्महत्या कर लेते हैं तो कई अपनी जन्मभूमी छोड़ शहरों में मजदूरी करने निकल पड़ते हैं। कभी मौसम की मार..  कभी टिड्डी दलों का आक्रमण... तो कभी नेताओं...गाँव के मुखिया की राजनीति का शिकार बन जाते हैं गरीब किसान।

   बिहार के एक छोटे से गाँव शारदापुर जहाँ कभी कई बार कृषक राष्ट्रीय पुरुष्कार से सम्मानित किये गये थे हेमंत झा..जंगल झा नाम से जाना जाता था उन्हें ... अपने कृषि शोध कार्यों के लिए पूरा जीवन लगा दिया था उन्होंने।

   शारदापुर का ये छोटा सा गाँव खेती बाड़ी में नए नए आविष्कारों के लिए प्रसिद्ध था कभी... पर अब पूरा गाँव उजाड़ और बेहाल हो गया है। गाँव के ज्यादातर लोग तो अब शहर में ही बस गए हैं पर कुछ लोग अभी भी अपनी मिट्टी से जुड़े हैं पर बीमारियों से जकड़े हैं। अभी भी उस गाँव में सुख सुविधाओं का आभाव है। ना ही स्कूल पास में है और ना ही अस्पताल।

ये छोटी सी कहानी उसी मिथिला नगरी के किसी समय में रहे जमीनदार.... किसान परिवार की है जो अब बदहाली और बिमारियों से जूझ रहे हैं..

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भवेश अपने किसन काका से बड़ी उम्मीद लगाए उनके घर पहुँचता है एक हफ्ते के बाद का समय मिला है एम्स में छोटे बेटे को बड़े डाॅक्टर से दिखाने का। दिल्ली आने जाने का खर्चा कैसे निकलेगा यही चिंता सताऐ जा रही है उसे। बेटे के ईलाज के लिए हर तीसरे महीनें उसे लेकर जाना होता है। आमदनी का तो सिर्फ एक ही जरिया है उसका वो छोटा सा खेत... जो कि पहले बहुत बड़ा था। और बाप दादा की जमीन.. बेच बेच कर ही तो अब तक ईलाज चलता आया है सबका। हमेशा किसी ना किसी बिमारी से जकड़ा ही रहता है हमारा परिवार।

बड़े रहीस जम्मीनदारों में नाम था उसके पिता दादा का। दोनों ने उच्च शिक्षा पाने के बाद भी अपनी मिट्टी से जुड़े रहने के लिए उन्होंने शहर में नौकरी नहीं की। कई छोटे किसान उनके खेतों पर काम करते थे। और साथ में वो खुद भी घंटों खेत में काम करते।

अब पिता भी नहीं रहे उनके ईलाज में ही बची खुची आधी जमीन बिक गई। उनके पास सिर्फ एक जमीन का ही तो सहारा है। जब भी ईलाज के नाम पर या किसी बड़े खर्च के लिए पैसों की जरूरत होती है...  बस जमीन ही तो दिखाई देती है।

अब खेती बाड़ी से तो अपने परिवार के लिए भोजन की व्यवस्था करना भी मुश्किल हो गया है। गाँव के अधिकांशतः सभी जौन रेजा(मजदूर) तो शहरों में अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं। उसने भी तो अपने छोटे भाई और अपने बड़े बेटे को पटना में पढ़ने के लिये भेजा है।

   छोटा बेटा तो जब तीन साल का था तभी से उसका इलाज चल रहा है अब सत्रह साल का होने को है... पिछले चौदह साल से हर तीसरे महीनें गाँव से दिल्ली जाना हजारों का खर्चा पड़ जाता है वो तो शुक्र है कि रहने खाने का इंतजाम बुआ के यहाँ हो जाता है। जो वहीं दिल्ली में रहती है।
बस इस बार कैसे भी इंतजाम कर लें बस यही उसके मन में चल रहा था। अब ये गाछी बेचूँगा नहीं... काका तो अपने हैं बस कुछ दिनों के लिए पैसे उधार ले लेता हूँ। फिर दिल्ली से आकर गेहूँ की कटनी का समय भी हो जाएगा..

   तब तक नागेश और चंदन भी पटना से आ जाऐंगे। वो दोनों साथ रहते हैं तो खेती बाड़ी में बड़ी मदद मिल जाती है।
दिमाग में यह सब चल ही रहा था कि तभी किसन आता है..  गले में लपेटे गमछे से अपना हाथ पोछते हुए... पसीने से तर बतर...
किसन धोती घुटने से ऊपर किये हुए अपने खेत में राजमा की बुआई कर रहा था सुबह से। भवेश को देख बोलता है... की भेल..  सब ठीक ठाक हो ना..
भवेश किसन काका के पैर छू प्रणाम करता है।

भवेश...  किसन कक्का पोखर वला आम गाछी अहाँ राइख लिय.. बस दस हजार दो दिया हमरा कका..  हम लौटते ही किछ इंतजाम करब अहाँक सबटा पईसा लौटा देब। बस एक बेर कुंदन के ईलाज ठीक से भो जैत..बड़का डाॅक्टर देखते। आब उम्मीद ऐछ ई ठीक भो जैता।

किसन... बाबा दादा के सबटा जमीन तो  बेचने जाए छै बऊआ.. आब जो ई कनिके बचल छै ऐहो पर भी तोहर नजर छौ.. केतेक बेर तोरा समझेलौं है कि खेती और बागवानी की नव नव तकनीक अपना.. कम जमीनो पर भी नीक फसल हैत। देख ले हमर लग त केतेक कम जमीन छल... सबका फसल केतेक नीक होएत  एछ एहि पर।

भवेश... काका आपकी बात बिलकुल सही है.. पर आप तो जानते हैं ना इसी नई तकनीक और कैमिकल्स के प्रयोग से ही तो... बच्वा की ये हालत है। पता नहीं का खा लिया था ऊ ऊस समय .... तब से अब तक भुगत रहे हैं ना हम... 
ना जाने कब तक इसका ईलाज चलेगा।

किसन... बऊआ तोहर बस का बात नहीं है ई खेती बाड़ी गाछी बगीचवा  देखना तो तूँ दिल्ली ऐ काहे नहीं चला जाता। हमर बेटा राजेशवा के देइख कितना अच्छा कमा रहा है ओतो ऊ वहाँ नौकरी कर रहा है और हम तेरी काकी ईहाँ गाँव में खेती बाड़ी। हमको तो इस बार भी बोला आने के लई..  पर हम ना जेबे अखेन।

भवेश... कक्का हम बेचब नहि आब कोनो जमीन..  खेती  से गुजर बसर मुश्किल भेल जाईये आब ते... बस एक बार दिल्ली से एला बाद किछ आन काज जुगाड़ करै पड़त।

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कविता झा'काव्या कवि'

#लेखनी

##लेखनी दैनिक कहानी प्रतियोगिता (मुक्त विषय)

21.07.2022

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5 Comments

Reyaan

22-Jul-2022 12:08 AM

बहुत खूब

Reply

Gunjan Kamal

21-Jul-2022 09:34 PM

शानदार प्रस्तुति 👌👌🙏🏻

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नंदिता राय

21-Jul-2022 01:49 PM

बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति 👌👌

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