Sarfaraz

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स्वैच्छिक

🌹🌹🌹🌹ग़ज़ल 🌹🌹🌹🌹

आँखों  में  अपनी  दर्द के मन्ज़र समेट लो।
कुछ यादगारें प्यार की दिलबर समेट लो।

उलझा  है  इन  में  मेरा  मुक़द्दर समेट लो।
ज़ुल्फ़ ए सलीब अपनी सितमगर समेट लो।

छेड़े न ज़िक्र आ के मुह़ब्बत का फिर कहीं।
दीवाना  आ  रहा  ये  पत्थर  समेट  लो।

इक सिम्त हैं क़बाह़तें , इक सिम्त नेकियाँ।
जो  भी  जनाब  चाहो वो बढ़ कर समेट लो।

अब हम सा रिन्द कोई न आएगा साकिया।
जाम - ए - सुबूह़़  शाम के साग़र समेट लो।

अँगड़ाई ले रही है सियासत की शब ह़ुज़ूर।
अब आप अपना बोरिया बिस्तर समेट लो।

साह़िल की सिम्त बढ़ने लगा कारवाँ मिरा।
अब ख़ुद को मेरी जान शनावर समेट लो।

ह़ामी नहीं है कोई मुह़ब्बत का ऐ फ़राज़।
उल्फ़त, वफ़ा, ख़ुलूस के दफ़्तर समेट लो।

सरफ़राज़ हुसैन फ़राज़ मुरादाबाद उ0प्र0।

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10 Comments

Chetna swrnkar

21-Aug-2022 01:09 PM

Lajawab 👌

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Mithi . S

20-Aug-2022 02:11 PM

Nice

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shweta soni

20-Aug-2022 10:58 AM

Nice

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