Sarfaraz

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स्वैच्छिक

🌹🌹🌹🌹ग़ज़ल 🌹🌹🌹🌹

मैं नस्ल -ए- नौ के कुछ ऐसे रवय्ये देख लेता हूँ।
के साकित बैठकर सबके करिशमे देख लेता हूँ।

मुह़ब्बत  ने  सिखाया  है  मुझे ऐसा हुनर यारो।
मैं आँखें बन्द कर के उनके जलवे देख लेता हूँ।

कई  पर्दों  में  रहते  हैं  जवाँ  जबसे  हुए  हैं वो।
मैं  फिर भी ख़्वाब में उनके नज़ारे देख लेता हूँ।

खुशी से फिर भी फँस जाता हूँ उनके जाल में जबके।
मैं   चेहरा   देख   कर   उनके इरादे देख लेता हूँ।

बुरी लगती है यह दुनिया, बुरे लगते हैं सब रिश्ते।
मैं  जब  भी  दोस्तों  के  अस्ल चेहरे देख लेता हूँ।

बहुत' अफ़सोस होता है मुझे औलादे आदम पर।
मैं   जब   भी   बेपढ़े  दो  चार बच्चे देख लेता हूँ।

फ़राज़ अपनी मुझे सादा मिज़ाजी अच्छी लगती है।
चलन  जब  भी  ज़माने  के अनोखे देख लेता हूँ।

सरफ़राज़   हुसैन  'फ़राज़'  मुरादाबाद  उ0 प्र0।

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7 Comments

बहुत ही आला दर्जे की रचना

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Suryansh

10-Sep-2022 10:18 PM

लाजवाब

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Palak chopra

10-Sep-2022 08:07 PM

Bahut khoob 🙏🌺

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