लेखनी कहानी -06-Oct-2022
भाग 2
दृश्य: 1
(प्रतियोगिता चल रही है। मंच पर कुछ कवि और कई श्रोता उपस्थित हैं। प्रतियोगिता का उद्घोषक दीपक के नाम का उद्घोष करता है।)
उद्घोषक - अभी आपने सुना सहारनपुर से आए कवि विमल शर्मा (अंजान) जी को। अब हमारे बीच अपनी कविता को लेकर आ रहे हैं। एक युवा, जोशीले और निराले कवि दीपक कुमार मिश्र जी !
(तालियाँ बजती हैं। कुछ समय बीतता है।)
उद्घोषक (पुनः):- दीपक कुमार मिश्र जी कृपया मंच पर आएं।
(दीपक व आशीष का पसीना पोंछते हुए दृश्य में प्रवेश)
उद्घोषक (पुनः):- क्या दीपक जी यहाँ उपस्थित नहीं हैं।
दीपक - उपस्थित हो गया महोदय !
(अपनी कविताओं के पृष्ठ थामे दीपक मंच पर वढ़ता है और तालियाँ बजती हैं। दीपक कविता प्रारम्भ करता है।)
दीपक (मंच पर) - ’’प्रतियोगिता में उपस्थित सभी गणमान्य व्यक्तियों को मेरा कोटि कोटि नमन ! विलम्ब के लिए क्षमा चाहता हूँ। दरअसल सम्मेलन में आने से पूर्व ही मेरी मोटर साइकिल खराब हो गई। मेरा इस सम्मेलन में पहुँचना सम्भव न होता यदि मेरा परम मित्र आशीष मुझे यहाँ तक साइकिल से न लाता। ये उसके प्रेम की शक्ति है कि हमने आठ किलोमीटर का मार्ग साइकिल से मात्र बीस मिनट में पूरा कर लिया। इसी मार्ग में मेरे मन में कुछ विचार आए और उन्हीं विचारों को कविता के माध्यम से मैं आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ-
(दीपक कविता पढ़ता है)
’’खुद सहे तपन की पीर, आपको दे छाँव धीर, आपकी तरक्कियों को देख जलता नहीं।
सपनों में हमारे साथ, खुद भी जागे रात-रात, हर किसी को ऐसा सच्चा मित्र मिलता नहीं।।
मन, वचन से हो घनिष्ठ, आत्मा से एकनिष्ठ, सतकरम में पीछे आपसे जो हटता नहीं।
भक्ति, धर्म, पुण्यदान में सदैव हो सहाय, सत्य के वचन से एक बार टलता नहीं।।
बुरे कर्म का विरोध, आपको कराए बोध, हर चमन में ऐसा श्वेत पुष्प खिलता नहीं ।।
खुद सहे..................मित्र मिलता नहीं।।
गोद में रखे जो शीश, पोंछे जो नयन का नीर, हाथ ऐसे मित्र का सभी को मिलता नहीं।
भूल से भी रुठ जाए, मित्र जो कभी तो क्षमा-दान माँगने से कोई मान घटता नहीं।।
चावलों के तीन ग्रास, कृष्ण ने दिया था राज्य, सुदामा के प्रेम सम त्रिलोक टिकता नहीं।।
खुद सहे..................मित्र मिलता नहीं।।
हर प्रहार की हो ढाल, ठोकरों से ले सम्भाल, मित्र रुप में हो दायाँ हाथ मिलता नहीं।
यदि मिले सुभाग्य से, तो वारना सखा पे प्राण अन्यथा तो मित्रता का मोल चुकता नहीं।।
हरिकृपा से है निशान्त, सूर्य रश्मियों से प्राप्त, जब से पाया है आशीष, शीश झुकता नहीं।।
खुद सहे..................मित्र मिलता नहीं।।
(कविता समाप्त होती है। सभी तालियाँ बजाते हैं। दीपक उतरकर अपनी जगह ग्रहण करता हैं। माइक का संचालन उद्घोषक करता है।)
उद्घोषक - जैसा कि आपने प्रतियोगिता के अन्तिम प्रतिभागी कवि दीपक कुमार मिश्र जी को सुना। सभी प्रतिभागियों को सुनने के बाद अब मैं प्रतियोगिता में उपस्थित विशेष अतिथि श्री राम कुमार साहनी जी से आग्रह करुँगा कि वह मंच पर आएं और प्रतियोगिता के विजेता के नाम की घोषणा करें।
(एक बार पुनः जोरदार तालियाँ बजती हैं। राम कुमार जी मंच पर आते हैं तथा माइक पर घोषणा करते हैं।)
रामकुमार जी - आज इस मंच पर हमने कई श्रेष्ठ कवियों को सुना कुछ कविताओं ने हमारे हृदय को विशेष रुप से स्पर्श किया। उन्हीं कविताओं में से एक सर्वश्रेष्ठ कविता को पुरुस्कृत करते हुए हमें अपार हर्ष हो रहा है। जिस कविता को पुरुस्कार प्राप्त हुआ उसके कवि हैं – “दीपक कुमार मिश्र जी’’।
जोरदार तालियाँ बजती हैं। आशीष प्रशन्न होकर अपने स्थान पर खड़ा हो जाता है। दीपक को उपहारस्वरुप एक सरस्वती प्रतिमा दी जाती है। तालियाँ बजती हैं।
दीपक(मंच से) - वास्तव में इस सम्मान का असली हकदार मेरा मित्र आशीष है। जिसकी वजह से आज मैं यहां हूँ।
“आशीष भाई’’ (दीपक आशीष को पुकारता है )
( आशीष मंच पर जाता है और दीपक वह प्रतिमा आशीष को सौंप देता है। एक बार पुनः जोरदार तालियाँ बजती हैं।)
(दृश्य परिवर्तन)
दृश्य: 2
सड़क का दृश्य है। दीपक व आशीष दोनों सड़क पर जाते हैं। दीपक के हाथ में साइकिल है और आशीष दीपक को पुरुस्कार में मिली सरस्वती प्रतिमा पकड़े हुए है। दोनों वार्तालाप करते हैं। आशीष पुरुस्कार देखता है।
आशीष (दीपक से)- मित्र कितना मोहक है यह पुरुस्कार !
दीपक - इस पुरुस्कार से भी मोहक तुम्हारा साथ है भाई !
( आशीष मुस्कुराता है। )
आशीष - आज सच में तुम्हारी कविता ने सवका हृदय जीत लिया।
दीपक - मेरी कविता भी तुम्हारी मित्रता पर रची गई थी। सबका हृदय जीतने का श्रेय भी तुम्हें ही जाता है।
आशीष - क्या मित्र! हर समय मेरी ही प्रशंसा करते रहते हो।
दीपक - तुम हो ही प्रशंसा के योग्य!
आशीष (दीपक का कान खींचते हुए) - तुम नहीं सुधरोगे।
दोनों हँसते हैं - ’’ हा - हा - हा - हा’’
(दृश्य परिवर्तन)
दृश्य: 3
(दीपक के घर में दीपक के पिता रमाशंकर, माँ-शकुन्तला व बहन आस्था उपस्थित हैं। तीनों दीपक के बचपन की तस्वीरें देख रहे हैं।)
आस्था (शकुन्तला से) - माँ ! देखो भईया की यह तस्वीर जब वह पहली कक्षा में थे।
माँ - हाँ ! बहुत प्यारा लग रहा है।
रमाशंकर - आखिर बेटा किसका है?
शकुन्तला (रमाशंकर से) - आप देखना जी एक दिन आपका नाम रोशन करेगा आपका लाडला।
रमाशंकर - हाँ अगर उस हरिजन से दूर रहे तो !
आस्था - सच कहा आपने पिता जी ! वो हरिजन, भईया के पीछे साये की तरह रहता है।
शकुन्तला - पता नहीं क्या चाहता है वह दीपक से! ना जाने कौन सा स्वार्थ है उसे।
“माँ’’ (दीपक की आवाज गूँजती है)
(दृश्य में आशीष व दीपक का प्रवेश)
दीपक - माँ देखो आज की कविता प्रतियोगिता में प्रथम आया हूँ मैं।
माँ (प्रशन्न होते हुए) – ‘सच’
दीपक - हाँ बिलकुल सच!
(दीपक प्राप्त पुरुस्कार पिता जी के हाथ में रख देता है और उनके व माँ के चरण छूता है।
बहन (दीपक से) - वाह भईया !
पिता - हाँ! सचमुच बहुत सुन्दर है।
दीपक - जानते हैं पिताजी मुझे किसने सम्मानित किया ? महान कवि ’राम कुमार साहनी जी’ ने!
पिता - बहुत अच्छा मेरे वच्चे !
दीपक - लेकिन इस सबके पीछे जिसका अपार संघर्ष है वास्तव में वही इसका असली हकदार है।
पिता - अच्छा कौन?
दीपक - और कौन? आशीष।
पिता - आशीष!
(आस्था निकट ही खड़ी रहती है)
दीपक - हाँ आशीष ! आशीष भाई! अन्दर आ जाओ।
( दीपक आशीष को पुकारता है। आशीष का प्रवेश)
दीपक - पिता जी, अगर आशीष ने मुझे समय पर प्रतियोगिता स्थल तक नहीं पहुँचाया होता तो !
पिता - तो क्या हो जाता दीपक? इसका मतलब तुम्हारा ये पुरुस्कार भी तुम्हें किसी की मदद से मिला है।
दीपक - पिता जी आप ये कैसी वात कर रहे हैं?
पिता - सच है ना ! तुम खुद कुछ नहीं कर सकते।
आशीष (रमाशंकर से) - नहीं पिता जी दरअसल!
रमाशंकर (आशीष से) - तुम चुप रहो मैं अपने बेटे से बात कर रहा हूँ। किसी बाहरी आदमी को बीच में वोलने की जरुरत नहीं है।
तभी दीपक - पिता जी ! आशीष बाहरी नहीं हमारा अपना है।
रमाशंकर (आशीष की ओर इशारा करते हुए) - ये! एक हरिजन! और हमारा अपना! हम ब्राह्मण हैं ब्राह्मण! यह हमारी तुलना में कुछ नहीं है।
दीपक (चींखते हुए) - पिता जी!
आशीष (दीपक को समझाते हुए) - मित्र! मित्र तुम मेरे लिए अपने पिता से ऐसे बात नहीं कर सकते ! मुझे लगता है मेरा यहाँ से जाना ही ठीक है।
दीपक - नहीं मित्र! तुम कहीं नहीं जाओगे ।
शकुन्तला (दीपक से) - वाह मेरे लाल ! इसी दिन के लिए तेरे पिता जी ने तुझे ये तालीम दी थी।
दीपक - माँ आप भी पिता जी की गलत बात का पक्ष ले रही हैं।
शकुन्तला - ठीक कह रहे हैं तेरे पिता जी! एक हरिजन और एक ब्राह्मण में कैसी दोस्ती ?
(आशीष खड़ा-खड़ा रोता है।)
दीपक - माँ ! आशीष शिक्षित है, गुणवान है। फिर भी नीची जाति का कैसे हो सकता है? आप लोग पढ़े लिखे होकर ये कैसी बातें कर रहे हैं?
आस्था (शकुन्तला से) - माँ ! भाईया से बात करने का कोई फायदा नहीं। ना जाने क्या जादू कर दिया है इस हरिजन ने भईया पर। जिसको छूना भी अधर्म है उसके साथ भोजन का आनन्द लिया जाता है।
रमाशंकर - सच कहा बेटी तूने !
(आशीष रोकर वहाँ से चुपचाप जाने लगता है।)
दीपक (आशीष को रोकते हुए) - मित्र रुको!
(आशीष उसको हाथ पकड़कर रोकता है।)
आशीष - नहीं मित्र अभी मुझे मत रोको। तुमने मुझे बहुत प्रेम दिया है। मैं तुम्हारी बात का निरादर नहीं करना चाहता। अभी मुझे जाने दो।
(दीपक उसे छोड़ देता है। आशीष चला जाता है। दीपक निराश होकर घुटनों पर बैठ जाता है। घर के सारे सदस्यों का दृश्य से धीरे-धीरे प्रस्थान)
(दृश्य परिवर्तन)
Renu
07-Oct-2022 08:35 PM
👍👍
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Nishant kumar saxena
12-Oct-2022 07:42 PM
🙏
Reply
Milind salve
07-Oct-2022 05:34 PM
बहुत खूब
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Gunjan Kamal
06-Oct-2022 11:46 AM
शानदार भाग
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