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लेखनी कहानी -06-Oct-2022

                                          भाग 3

दृश्य: 1

(आशीष के घर का दृश्य है। एक कोने में आशीष जूते बनाता है दृश्य में प्रवेश द्वार पर आशीष की माँ(सुमन) स्वेटर बुनती है।

(दृश्य में दीपक का प्रवेश)

दीपक (सुमन के पैर छूते हुए) - नमस्ते माँ जी!

सुमन - जीते रहो बेटा।

दीपक - माँ आशीष कैसा है?

सुमन - आज सुबह से आशीष विल्कुल गुमसुम है ना कुछ वोल रहा है ना सुन रहा है। कुछ हुआ है क्या? तू खुद ही मिल ले।

दीपक - नहीं माँ! आज उससे मिलने की हिम्मत नहीं हो रही है।

सुमन - मिलना तो तुझे पड़ेगा, मैं सुबह से कई वार खाना लेकर गई लेकिन उसने वापस कर दिया, पता नहीं क्या बात है?

दीपक - माँ आप खाने की थाली मुझे दीजिए।

(सुमन पास रखी भोजन की थाली आशीष को देती है।
(दीपक थाली लेकर आशीष के पास जाता है)
(आशीष जूते बनाता है। दीपक, आशीष के कन्धे पर हाथ रखता है।)

दीपक - मित्र !

(दीपक के स्पर्श से आशीष चौंकता है वह दीपक से मुँह फेरकर खड़ा हो जाता है)

दीपक - मित्र ! अपने मित्र से बात तक नहीं करोगे।

आशीष - नहीं मित्र! बात यह है कि मेरी तवियत कुछ ठीक नहीं है।

दीपक - इधर मुँह घुमाना।

(दीपक अपने हाथ से आशीष का चेहरा अपनी ओर मोड़ लेता है। आशीष के चेहरे पर आँसू हैं।)

दीपक - मित्र ! तुम रो रहे हो।

आशीष - नहीं आँख में कुछ चला गया।

(आशीष आँख मलता है।)

दीपक - कितना अभागा हूँ मैं! जिस मित्र ने मुझे पल-पल खुशियाँ दीं उसकी आँखों में मैंने कितने आँसू भर दिए। मुझसे पाप हुआ है मित्र ! मुझे माफ कर दो।

(दीपक यह कहकर आशीष के पैरों में झुक जाता है। आशीष उसे रोकता है और सीने से लगा लेता है।)

आशीष - नहीं मेरे भाई! तुम जैसा मित्र हर किसी को नसीब नहीं होता। जो कुछ भी हो रहा है उसमें न तुम्हारा कोई दोष है ना मेरा ! बस परिस्थितियों का खेल है।

(दोनो अलग होते हैं।)

दीपक - मगर मैं तुम्हारा दुःख नहीं देख सकता।

आशीष - मैं दुःखी नहीं हूँ। दिल में कुछ पीड़ा थी जो आँसुओ में वह गई।

दीपक - तो अब रोना वन्द करो।

(आशीष दोनों हाथों से आँसू पोंछता है।)

आशीष - लो नहीं रोता! अब खुश!

दीपक - अभी नहीं! जब तक मेरे साथ भोजन नहीं करोगे मैं खुश नहीं हो सकता।

आशीष - मुझे भूख नहीं है मित्र।

दीपक - तुम्हें भूख नहीं है, कह दिया, मगर मेरा क्या? सुबह से मैंने भी कुछ नहीं खाया।

आशीष - क्या?

दीपक - हाँ और तब तक कुछ नहीं खाऊँगा जब तक तुम्हें ना खिला दूँ।

(दीपक रोटी का कौर तोड़कर आशीष के मुँह की ओर बढा़ता है। आशीष निवाला ग्रहण करता है।)

आशीष - अब तो खुश ना! चलो अब तुम्हारी बारी।

(आशीष एक निवाला दीपक को खिलाता है। निवाले खिलाने का क्रम जारी रहता है।
(दृश्य परिवर्तन)

दृश्य: 2

(गली का दृश्य है। दीपक की बहन (आस्था) चली जा रही है। उसके हाथ में एक पर्स है। इसी बीच दृश्य में कुछ चोरों का प्रवेश होता है। ये चार चोर हैं। एक के हाथ में चाकू है। चोर आस्था को घेर लेते हैं।)

एक चोर - रुक जाओ लड़की।       
(आस्था रुक जाती है।)

आस्था - कौन हो तुम लोग?

दूसरा चोर - हमारे बारे में सबाल मत करो। अपना पर्स हमें दे दो। वरना!

आस्था - वरना! वरना क्या?
(पहला चोर उसकी ओर चाकू दिखाता है।)

पहला चोर - वरना अभी तुझे परलोक पहुँचा देंगे। पर्स हमें दे।

( वह आस्था से पर्स जवरदस्ती छीन लेता है। आस्था संघर्ष करती है लेकिन उसकी एक नहीं चलती। अंत में,

आस्था - देखो इसमें जो रुपये हैं। सब तुम रख लो लेकिन मेरी पढ़ाई के कागजात भी इसमें हैं उन्हें मुझे लौटा दो।

दूसरा चोर - लड़की! जान प्यारी है तो चुपचाप निकल जा यहाँ से।

(आस्था चोर के हाथ में थमा पर्स छीनने की कोशिश करती है।)

आस्था - नहीं! तुम इन्हें नही ले सकते। इनसे मेरा भविष्य जुड़ा है। वापस करो मुझे मेरे कागजात।

चोर आस्था को धक्का मार देता है।

चोर - चल हट दूर!   
(आस्था गिर जाती है)
(इसी बीच आशीष व उसके मित्र (रामू) का प्रवेश)
(दोनों कालेज से आ रहे हैं)
(आशीष व रामू आस्था की ओर आते हैं।)

आशीष - आस्था! आस्था! बहन क्या हुआ तुझे!
(आस्था रोती है चोर वहीं खड़े रहते हैं।)

आस्था (आशीष से) - मेरा पर्स!
(आस्था पुनः रोती है।)
यह देखकर,

चोर(दूसरे चोर से) - ये लो! आ गया बहन का वीर भाई!

सभी चोर हँसते है - ’’हा-हा-हा-हा’’
(आशीष अपना कालेज बैग रामू को दे देता है।)

आशीष (चोर से)- ओए! पर्स वापस दे और दफा हो।

चोर - क्यूँ तुझमें दम नहीं है क्या? ले सकता है तो ले ले! मैं यही खड़ा हूँ।
(आशीष क्रोधित होकर चोरों की ओर बढ़ता है।)

रामू (आशीष से) - ’भाई मैं भी आऊँ’

आशीष - नहीं मैं अकेला ही काफी हूँ।

(आशीष चोरों पर टूट पड़ता है। एक चोर उस पर चाकू से प्रहार करता है। किन्तु आशीष स्वयं को वचा लेता है। वह सभी को पीटता है। अन्त में सब भाग खड़े होते हैं। आशीष भागते हुए चोर के हाथ से पर्स छीनता है और लाकर आस्था को देता है।)

आशीष (आस्था को पर्स देते हुए) - लो बहन तुम्हारा पर्स!
(आस्था पर्स लेती है)

आशीष(आस्था से) - बहन तुम ठीक हो!

आस्था प्रत्युत्तर में गर्दन हिलाती है- ’हाँ’

आशीष(रामू से) - रामू! आस्था को घर तक छोड़कर आना समझ गया ना!

रामू - जी भईया!
(आशीष वहाँ से जाता है। )

आस्था आशीष को पीछे से आवाज देती है - आशीष भाई!
आशीष पीछे पलटता है।

आस्था - थैंक यू ।

आशीष - खुश रहो और सम्भलकर घर जाना।

आस्था - जी भईया!
(दृश्य परिवर्तन)

दृश्य: 3

(दीपक के घर का दृश्य है। दीपक गीता की पुस्तक का पाठ कर रहा है। वह आँखें मूँदे गीता के श्लोक पढता है।

दीपक -’’वीतरागभयक्रोधाः, मन्मयाः, माम्,उपाश्रिताः,।
          वहवः, ज्ञानतपसा,पूताः,मद्भावम्, आगताः।।’’

(आस्था का दृश्य में प्रवेश)
(दीपक नेत्र खोलता है।)

दीपक (आस्था से) - अरे आस्था तुम!

आस्था - पढ़िये न भईया। मेरे मन को भी शान्ति मिल जाएगी।

दीपक - ’’ये, यथा,माम्, प्रपद्यन्ते, तान, तथा एव, भजामि अहम्।
मम, वत्र्म अनुवर्तन्ते, मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।

(श्लोक समाप्त होने के बाद)

दीपक - आज वास्तव में तुमने अपने नाम को सार्थक किया है आस्था! मगर तुम्हें तो ज्ञान-छयान में रुचि ही नहीं थी फिर आज तुम पूजा कक्ष में कैसे?

आस्था - भईया मैंने जीवन में बहुत गलतियाँ की हैं। उन्हीं की माफी तलाश रही हूँ।

दीपक - क्या? ऐसी कौन सी गलती की है तुमने?

आस्था - भईया मुझे माफ कर दो।

दीपक - आस्था! बता तो सही क्या बात है?

आस्था - मैंने आशीष भाई के साथ बहुत बुरा व्यवहार किया है भईया! मुझे इसका बहुत दुःख है।

दीपक - आस्था इसमें दोष तुम्हारा नहीं बल्कि उस समाज का है जो जातिवादी जहर से भरा हुआ है। उसी जहर के बीज वह छोटे बच्चों में भी वो रहा है।

आस्था - लेकिन भईया मैंने सुना है जातिवाद धर्मग्रन्थों की देन है।

दीपक - ’’नही आस्था गीता में कहा गया है -
चातुर्वण्र्य, मया सृष्टम्, गुणकर्म विभागशः।
तस्य, कर्तारम्, अपि, माम्, विद्धि, अकर्तारम्, अव्ययम्।।

अर्थात ब्राहाण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन चार वर्णो का समूह, गुण और कर्मों के विभागपूर्वक रचा गया है या कह सकते हैं कि किसी का वर्ण उसके कर्म से निर्धारित होता है उसके जन्म से नहीं।

आस्था - सच भईया!

दीपक - हाँ, पहले की व्यवस्था में जो जैसा कर्म करता था उसी के अनुसार उसकी जाति तय होती थी। इसका अर्थ यह कदापि नहीं था कि किसी सेवक के पुत्र को राजा न वनने दिया जाए अथवा उससे ज्ञान, धन और यश प्राप्ति के अवसरों को छीना जाए।

आस्था - इसका अर्थ यह हुआ कि जाति किसी के जन्म से सम्वन्धित नहीं होती।

दीपक - विल्कुल नहीं! जाति मात्र एक कर्म, स्थिति या पद का नाम है।

आस्था - फिर समाज में इस जातिवाद का जहर कैसे फैला भईया?

दीपक - यह जहर घोला धर्म के ठेकेदारों ने, जिन्होंने समाज के सेवक वर्ग से ज्ञान, धन और सम्मान प्राप्ति के अवसरों को छीन लिया।

आस्था - लेकिन धर्मगुरु तो धर्मग्रन्थों का ही ज्ञान समाज को देते हैं।

दीपक - सारे धर्मग्रन्थ भगवान का ज्ञान नहीं देते बहन! बहुत से धर्म ग्रन्थों की रचना ऋषि, मुनि, साधु, पीर-पैगम्वरों ने खुद की है। इनमें उनके खुद के अनुभव शामिल हैं।

आस्था - तो फिर सच क्या है भईया?

दीपक - परमात्मा की वाणी ही सच है बहन! सच है उन सन्तों का ज्ञान जिन्हें परमात्मा का साक्षात्कार हुआ। जो जाति धर्म से ऊपर मानवता के लिए जिए। जिन्होंने लोगो को परमात्मा की राह दिखाई। उन्हें मानवीय प्रेम सिखाया। ऐसे सन्तों के ज्ञान से जो धर्म ग्रन्थ मेल न खाएं वे मिथ्या हैं। उनका ज्ञान महज मनगढ़न्त विधा है और कुछ नहीं।

आस्था - भईया! आप इतने ज्ञानी हो तो मुझे यह वताओ कि मुझे मेरी गलतियों की माफी कैसे मिलेगी?

दीपक - बहन मैं चाहकर भी तुम्हें माफ नहीं कर सकता। तुम्हें आशीष भाई से माफी माँगनी चाहिए।

आस्था - जी भईया! मैं भी यही चाहती हूँ कि कल आप मुझे आशीष भाई के घर ले चलें।

दीपक - मगर माँ और पिता जी!

आस्था - आप मेरे लिए इतना भी नहीं करोगे भईया!
(दीपक मुस्कुराता है।)

दीपक - कोशिश करुँगा गुड़िया।

आस्था भाई की गोद में सिर रख देती है और दीपक उसके सिर पर हाथ रखता है।
(दृश्य परिवर्तन)

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2 Comments

Milind salve

07-Oct-2022 05:34 PM

बहुत खूब

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Gunjan Kamal

06-Oct-2022 11:46 AM

बेहतरीन भाग

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