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लेखनी कहानी -06-Oct-2022

                           भाग : 4

दृश्य: 1

(आशीष के घर का दृश्य है। आशीष जूते वनाता है। वह अपने बनाए जूते को देखता है। तभी पीछे से उसकी आँखों पर दीपक हथेलियाँ रखता है। आशीष उन हथेलियों को स्पर्श करता है।)

आशीष - मित्र! तुम!

दीपक - कैसे पहचान लेते हो तुम मुझे मित्र। बिना बोले बिना आहट के।           
(दीपक आशीष के सामने आता है)

आशीष - तुम मेरी पहचान हो मित्र! कोई अपनी पहचान को भला कैसे नहीं पहचानेगा।
(दीपक मुस्कुराता है)

दीपक - वाह मित्र! क्या खूब कहा!

आशीष - मित्र देखो मैंने क्या वनाया है ?   
(आशीष, दीपक को जूतियाँ दिखाता है।)
(ये लेडीज जूतियाँ हैं।)

दीपक - अरे यह क्या ? तुम तो जेन्ट्स जूतों के कारीगर हो फिर ये लेडीज जूतियाँ।

आशीष - हाँ ये मैंने अपनी बहन के लिए बनाई हैं।

दीपक - मित्र तुमने कभी वताया नहीं कि तुम्हारी कोई बहन भी है।
(आस्था का प्रवेश)

आस्था(आशीष से) - आशीष भाई!

आशीष - अरे बहन तुम!

आस्था - जी भईया! आज जाति पर घमंड करने बाली एक घमंडी लड़की बनकर नहीं वल्कि आपकी छोटी बहन बनकर आई हूँ।
  
आशीष - बहन! तुम्हारे विचारों में इतना परिवर्तन होगा सोंचा न था।

दीपक - मैंने भी नहीं सोचा था।           
(लहज़ा मजाकिया)
(दीपक व आशीष एक साथ हँसते हैं।)
(आशीष पास ही रखी जूतियाँ उठाकर आस्था को सौंपता है।)

आशीष(जूतियाँ सौंपते हुए) - आस्था बहन, अपने गरीब भाई का छोटा सा उपहार स्वीकार करो।

आस्था - आशीष भाई अब दोबारा कभी ऐसा न कहना।
(आस्था जूतियाँ रख लेती है।)

आस्था (आगे) - भईया! ये मेरे जीवन का सवसे अनमोल उपहार है।

दीपक(आशीष से) - ओ तेरे की! आस्था ही वह बहन है जिसके लिए तुमने मेहनत की।

आशीष (मुस्कुराते हुए) - हाँ।

आशीष - आस्था बहन पहनकर देखो इन्हें। मैंने अंदाज से बनाई हैं।
(आस्था जूतियाँ पहनती है।)

आस्था - वाह भाई! मेरे पैरों में ये बिल्कुल फिट आई हैं।

दीपक - आतीं कैसे नहीं! इतने प्रेम से जो बनाई थीं एक भाई ने।
(आशीष मुस्कुराता है।)

आस्था - आशीष भाई! मैं आपसे एक और उपहार भी चाहती हूँ।

आशीष - एक और उपहार! मैं कुछ समझा नहीं।

आस्था - अरे भईया घवराओ नहीं। कल हमारे घर सत्यनारायण जी की कथा है और मैं चाहती हूँ कि आप वहाँ आएं।

आशीष - लेकिन बहन आपके माता-पिता!

दीपक - उनकी चिन्ता तुम मत करो मित्र ! मैं हूँ ना, तुम आओगे ना।

आशीष - जब मेरे बहन और भाई दोनों मुझे बुलाएं और मैं ना आऊँ। ऐसा हो सकता है क्या?

तीनों हँसते हैं। ‘हा-हा-हा-हा’
(दृश्य परिवर्तन)
                                   
दृश्य: 2

(दीपक के घर का दृश्य है। दीपक के पिता रमाशंकर, सत्यनारायण की पूजा के लिए बैठे हैं। उनके सामने पूजा की विधिवत तैयारी है। निकट ही आस्था, उसकी माँ व परिवार के चार अन्य सदस्य बैठे हैं।)

रमाशंकर - दीपक की माँ! पूजा पूर्ण होने बाली है। भोला कहाँ है? मैंने उससे प्रसाद मँगवाया था।

पत्नी - हाँ अब तक आया नहीं भोला! पता नहीं कहाँ रह गया।

दीपक - माँ आप चिन्ता मत करो। मैंने प्रसाद की व्यवस्था कर दी है।

(रमाशंकर आँख बन्द करके मन्त्र पढ़ते हैं।)

रमाशंकर - शान्ताकारं, भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं।
            विश्वाधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभाग्डमं।।
          
(मन्त्र के दौरान आशीष का प्रवेश। आशीष के हाथ में कुछ फलों की टोकरी है।)

रमाशंकर(दूसरा मन्त्र पढ़ते हुए) - त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव वन्धुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विधा द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वम् मम् देव देव।।

(आशीष टोकरी दीपक को देता है। दीपक फलों को तश्तरी में निकालकर रमाशंकर के पास रख देता है।)
(मन्त्र समाप्ति के बाद)

दीपक(रमाशंकर से) - पिता जी! लीजिए प्रसाद! प्रभु का भोग लगाइए।

रमाशंकर - भोला फल ले आया।
(रमाशंकर हाथों में फल उठाता है।)

दीपक - नहीं पिता जी! ये फल आशीष लाया है।
(रमाशंकर का हाथ भोग लगाने से पूर्व ही रुक जाता है। वह फलों को हवा में उछालकर फेंक देते हैं।)

रमाशंकर - अधर्म! घोर अधर्म।
रमाशंकर उठकर खड़े हो जाते हैं।

रमाशंकर - तुम जानते भी हो तुमने कितना बड़ा अधर्म किया है?

दीपक - इसमें कैसा अधर्म है पिता जी! मैं नहीं समझा।

रमाशंकर - एक अछूत के हाथ से स्पर्श किया भोग देवता ग्रहण नहीं करते।

दीपक - पिता जी ये कैसी व्यर्थ बातें कर रहे हैं आप? आपकी सोच इस हद तक गिर गई है विश्वास नहीं होता।
(सभी चुप खड़े रहते हैं।)

रमाशंकर - चुपकर अधर्मी! उस हरिजन के साथ रहकर तेरी बुद्धि भी भ्रष्ट हो गई है। तू क्या जाने पूजा और कर्मकाण्ड किसे कहते हैं।

दीपक(क्रोध में) - आपकी पूजा भी मिथ्या है और आपका कर्मकाण्ड भी मिथ्या है।

रमाशंकर - नीच! मुझसे ज़बान लड़ाता है।
(रमाशंकर पास रखा बेंत उठाकर दीपक को मारते हैं। आशीष व शकुन्तला उसे रोकते हैं।)

आशीष - पिता जी रुक जाइए।

शकुन्तला - ये क्या अनर्थ कर रहे हैं आप?
(रमाशंकर दीपक को दूसरा, तीसरा, चौथा बेंत मारते हैं। शकुन्तला व आस्था रोते हैं।)

आस्था - पिता जी आप बहुत गलत कर रहे हैं।
(रमाशंकर फिर बेंत मारते हैं। आशीष, रमाशंकर के पैरों में गिर जाता है।)

आशीष(रमाशंकर से) - पिता जी बस कीजिए। गलती मेरी है मुझे यहाँ नहीं आना चाहिए था।

(रमाशंकर क्रोध में आशीष को धक्का देते हैं। और दीपक को बेंत मारने बढ़ते हैं। आशीष दूर गिरता है और उसका सिर मेज से टकराता है। उसके सिर से खून बहता है। दीपक आशीष की ओर भागता है। सभी शान्त हो जाते हैं।)

दीपक(आशीष से) - मित्र! मित्र क्या हुआ तुम्हें। तुम्हारे सिर से बहुत खून बह रहा है।

आशीष - मित्र यदि मेरी एक चोट से तुम्हारा झगड़ा समाप्त होता है तो ऐसी सौ चोटें मुझे स्वीकार हैं।
(रमाशंकर का प्रस्थान)

शकुन्तला(दीपक से) - बेटा तू ठीक है ना!

दीपक - माँ चोट मुझे नहीं आशीष को लगी है।

दीपक(आशीष से) - आशीष भाई चलो डाक्टर के पास चलते हैं।

आशीष - नहीं मित्र इसकी कोई आवश्यकता नहीं।

आस्था(दोनों से) - आप दोनों को ही डॉक्टर के पास जाना चाहिए और मैं भी आपके साथ चल रही हूँ।

(दीपक आशीष को उठाता है। आस्था, दीपक व आशीष का प्रस्थान)

शकुन्तला पूजा स्थल के निकट बैठकर रोती है।

शकुन्तला (हाथ जोड़ते हुए) - प्रभु! प्रभु मेरे परिवार को टूटने से बचा लो प्रभु! बचा लो !

(दृश्य परिवर्तन)

दृश्य: 3

(एक दुकान पर बनवारी अखवार पढ़ता है। आशीष सिर पर पट्टी बाँधे बनवारी के सामने से गुजरता है।)

बनवारी(आशीष से) - क्या हुआ रे बचुआ ! कहाँ से सिर फुड़वाकर आ रहे हो। आएं!

आशीष(रुककर) - कुछ नहीं चाचा ! छोटी सी चोट लग गई।

बनवारी - चोट लग गई या रमाशंकर ने तेरा सिर फोड़ दिया रे।
आशीष - नहीं चाचा ऐसा कुछ नहीं है।

बनवारी - झूठ काहे बोलता है रे ! मैं सब जानता हूँ रमाशंकर के पड़ोसी से पता चला उसने धक्का दिया तुझे!

आशीष - चाचा ये कैसी बातें कर रहें हैं आप? ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।

बनवारी - ए आशीष ! पागल मत बन! चल मेरे साथ थाने।
आशीष - थाने ! थाने क्यूँ?

बनवारी - रमाशंकर के खिलाफ रपट कराने। ऊ का कहते हैं उसको, हाँ..एस्सी-एसटी एक्ट लगवाएगें उस पर।

आशीष - नहीं चाचा!

बनवारी - नहीं बचुआ। अब पता लगेगा उस पण्डित को। हमारे बिटवा को मुनीम की नौकरी से निकलवाया था उसने! बहुत पुराने हिसाब चुकाने हैं हमको उससे।

बनवारी आशीष का हाथ पकड़कर खींचता है।

बनवारी - चल थाने!

आशीष(हाथ छुड़ाते हुए) - मेरा हाथ छोड़िए चाचा ! अपनी व्यक्तिगत रंजिश के लिए आप मेरा इस्तेमाल नहीं कर सकते। दीपक मेरा मित्र है और उसके पिता मेरे पिता तुल्य हैं।

बनवारी - रमाशंकर तुझसे नफरत करता है। देख तेरा सर फोड़ दिया उसने।

आशीष - हाँ तो क्या हुआ ? ये किस विद्वान ने कहा है कि नफरत को नफरत से जीत सकते हैं। माना आज पण्डित जी मुझसे नफरत करते हैं, कल प्रेम भी हो सकता है। मैं उनकी नफरत की खाई को अपनी प्रेम की मिट्टी से पाट दूँगा। मुझे पूरा विश्वास है कि पण्डित जी एक दिन मुझे अपना जरुर मानेंगे।

(आशीष का प्रस्थान)
जाते हुए आशीष से,

बनवारी - हाँ तो जा मर! वह पण्डित तुझे कभी गले नहीं लगाएगा। तू हरिजन है हरिजन ! लौट कर इस हरिजन के पास ही आएगा।

(दृश्य परिवर्तन)

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9 Comments

Renu

07-Oct-2022 08:36 PM

👍

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Nishant kumar saxena

12-Oct-2022 07:45 PM

🙏

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Milind salve

07-Oct-2022 05:33 PM

बहुत खूब

Reply

Nishant kumar saxena

12-Oct-2022 07:45 PM

🙏✌️ शुक्रिया

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Aniya Rahman

07-Oct-2022 09:05 AM

कहानी आधी आ रही है एक बार देखे आप सर

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Nishant kumar saxena

12-Oct-2022 07:43 PM

कृपया अब पढ़ें

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Nishant kumar saxena

12-Oct-2022 07:45 PM

पेस्ट करते समय छूट गया था

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