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लेखनी कहानी -06-Oct-2022


                                      भाग: 5

दृश्य: 1

आशीष के घर का दृश्य है। शकुन्तला भोजन पकाती है।
(आस्था का प्रवेश)

आस्था (शकुन्तला से) - माँ क्या बना रही हो आज ?

शकुन्तला - दीपक के लिए खीर बना रही हूँ उसे पसन्द है।
(आस्था शकुन्तला के निकट बैठ जाती है।)

आस्था - बहुत अच्छा माँ।

शकुन्तला - पिछले कुछ दिनों से घर में बहुत बुरा हो रहा है। दीपक हमसे दूर होता जा रहा है। आज उसे अपने हाथों से खीर खिलाऊँगी और प्यार से समझाऊँगी।

आस्था - जी माँ।
(नेपथ्य से रेडियो की आवाज का स्वर उठता है जिसे आस्था व शकुन्तला सुनते हैं।)

नेपथ्य से (रेडियो की आवाज) - अभी अभी मिली ताजा जानकारी से पता चला है कि शहर के सेक्टर चौंसठ में दंगा भड़क गया है। दो सम्प्रदायों के बीच हुई कहा-सुनी ने खूनी हिंसा का रुप ले लिया है। आगजनी तोड़फोड़ और हत्याओं की घटनाएं सामने आई हैं। अभी तक मरने बालों की संख्या तीस बताई जा रही है। सभी नगरवासियों से अनुरोध है कि शान्ति व सौहार्द वनाए रखने में प्रशासन की मदद करें।
(खवर समाप्त होती है।)

शकुन्तला(आस्था से) - आस्था! ये दंगा सेक्टर चौंसठ में हुआ है ना।

आस्था - हाँ माँ ! खबर तो यही है लेकिन आप इतनी घबराई हुई क्यों हैं?

शकुन्तला - आस्था सेक्टर चौंसठ में आज दीपक इण्टरव्यू के लिए गया है।

आस्था - क्या?

शकुन्तला - हे भगवान ! मेरे वच्चे की रक्षा करना। (शकुन्तला हाथ जोड़कर कहती है।)
(इसी बीच भोला का तेज कदमों से प्रवेश)

भोला(घबराते हुए शकुन्तला से) - माँ जी ! माँ जी! ग़ज़ब हो गया।

शकुन्तला - क्या हुआ भोला?

भोला - सेक्टर चौंसठ के जिस दफ्तर में दीपक भईया इण्टरव्यू देने गए थे उसे दगाईयों ने तोड़ डाला है। वहाँ कई लोग घायल हुए हैं और कुछ लोंगो के मरने!

(शकुन्तला भोला को रोकती है)

शकुन्तला - बस कर भोला ! भगवान के लिए चुप हो जा! पता नहीं मेरा दीपक कैसा होगा।

(शकुन्तला को चक्कर आता है। उसे आस्था व भोला सम्भालते हैं।

आस्था - माँ सम्भालिए खुद को। भईया ठीक होंगे मै अभी उन्हें फोन लगाती हूँ।
(रमाशंकर का प्रवेश)

रमाशंकर(आस्था से) - फोन लगाने का कोई फायदा नहीं विटिया! मैं कई बार दीपक को फोन लगा चुका हूँ लेकिन फोन नहीं लग रहा।

शकुन्तला(रमाशंकर से) - फोन नहीं लग रहा तो आप जाइए। कहीं वे दंगाई दीपक को नुकसान न पहुँचा दें।

रमाशंकर - धीरज रखो दीपक की माँ! बाहर कर्फ्यू लगा है हम कहीं नहीं जा सकते।

आस्था(रमाशंकर से) - अब हम क्या करेंगे पिता जी?

रमाशंकर - मैं कुछ जानने बालों से मदद माँगता हूँ।

(रमाशंकर बारी-बारी तीन बार मोबाइल से कॉल लगाता है।)

रमाशंकर(फोन लगाकर) - हैलो नेता जी! एक बहुत बड़ी समस्या हो गई है। मेरा बेटा दीपक दंगे में फँस गया है। कृपया उसे वापस लाने में हमारी मदद कीजिए।

नेपथ्य से - पण्डित जी इस समय मैं आपकी कोई मदद नहीं कर सकता। शहर में कर्फ्यू लगा है। ऐसे में बाहर निकलना असम्भव है। क्षमा करें पण्डित जी।

रमाशंकर(पुनः फोन लगाकर) - हैलो! शर्मा जी ! मेरा बेटा दीपक सेक्टर चौंसठ में दंगे में फँसा हुआ है। आप पुलिस महकमें में अफसर हैं। कृपया मेरे बेटे की मदद कीजिए।

नेपथ्य से (स्वर) - रमाशंकरजी केबल आपका ही बेटा वहाँ नहीं फँसा है और भी बहुत से लोग हैं वहाँ। पुलिसबल भेज दिया गया है। मदद की प्रतीक्षा करें।

रमाशंकर(तीसरी बार फोन लगाकर) - हैलो रमेश भाई! मेरा बेटा दीपक दंगे में फँस गया है। आप!

नेपथ्य से(रमाशंकर की बात बीच में काटते हुए) - शंकर भाई! मेरा बेटा स्वयं वहाँ फँसा हुआ है। ऐसे में मुझे भी किसी की मदद की उम्मीद है न जाने कैसा होगा वह?

(स्वर समाप्त होता है।)

रमाशंकर(उदास होते हुए शकुन्तला से) - दीपक की माँ अब कुछ नहीं हो सकता। मैं सारे जतन कर चुका। अब कौन हमारी मदद करेगा?

शकुन्तला - आप आशीष को फोन लगाइए। हम उससे माफी माँग लेंगे लेकिन इस समय उसकी मदद लेना जरुरी है। आप उसे फोन लगाइए।

रमाशंकर - नहीं मैं किस मुँह से बात करुँ?

शकुन्तला(आस्था से) - अब क्या करें? आस्था अब आशीष से तुम्हीं बात कर सकती हो।

आस्था - माँ बेटे की ममता ने आपको स्वार्थी वना दिया है। अगर आशीष भाई को आपने बेटा समझा होता तो आज मदद माँगते हुए यूँ लज्जा नहीं आती।

(आस्था, पिता से मोबाइल लेकर फोन लगाती है।)
(दृश्य परिवर्तन)

दृश्य: 2

( आशीष के घर का दृश्य है। आशीष घर से निकलता है। उसकी माँ सुमन उसका रास्ता रोकती है।)

सुमन (आशीष से) - आशीष बेटा इतनी रात को कहाँ जा रहे हो?

आशीष - माँ आस्था का फोन आया था। शहर में दंगा हो गया है और दीपक अब तक घर नहीं लौटा है। मैं उसे घर लाने जा रहा हूँ।

सुमन - क्या? दीपक घर नहीं लौटा। लेकिन वहाँ खतरा होगा तुम वहाँ मत जाओ वेटा।

आशीष - नहीं माँ! मुझे जाना ही होगा।

सुमन - बेटा कहीं दगांईयों ने तुम्हें नुकसान पहुँचा दिया तो!

आशीष - माँ क्या दीपक तुम्हारा बेटा नहीं! दीपक की जगह अगर मेरा सगा भाई होता तो क्या तब भी तुम मुझे रोकतीं।

सुमन - वह सब सही है लेकिन बाहर कर्फ्यू है और पुलिस भी तो है।

आशीष - माँ इस शहर को मुझसे अधिक कोई नहीं जानता। कुछ ऐसे रास्ते भी हैं जो मुझे शीघ्र ही दीपक तक पहुँचा देंगे। तुम चिन्ता मत करना। मै शीघ्र लौटूँगा।

(आशीष माँ के गले लगता है। आशीष का प्रस्थान। माँ वहीं रहती है।)

(दृश्य परिवर्तन)

दृश्य: 3

रात का दृश्य है। यह एक ऑफिस है। ऑफिस में कुछ दंगाई दीपक को पकड़कर असलम(दगांईयों में से एक) के सामने लाते हैं।

असलम(साथियों से) - सबको ठिकाने लगा दिया?
एक दंगाई - हाँ भाई। बस यही आखिरी बचा है।
(दीपक की ओर इशारा)

दंगाई(आगे) - भाई इसका क्या करना है?

असलम - करना क्या है? हाथ-पाँव तोड़ो और बक्से में डाल दो इसे। बिना साँस के कुछ ही देर में मर जाएगा।

(दीपक स्वयं को छुड़ाने का प्रयास करता है। सभी दंगाई उसे पीटकर घायल कर देते हैं। वह व़ेदम हो जाता है)

असलम - इसके हाथ-पाँव और मुँह वाँधो और डाल दो वक्से में।

(दीपक के हाथ व मुँह वाँधे जाते हैं।)

दूसरा दंगाई - इसका पर्स, घड़ी और मोबाइल निकाल लो।

(एक आदमी दीपक का पर्स घड़ी व मोबाइल निकालता है।)

तीसरा दंगाई - भाईयों! अगर इस शहर में ऐसे ही दंगे होते रहे तो हमें जिन्दगी भर कमाने की जरुरत नहीं पड़ेगी।

सभी हँसते हैं - हा-हा-हा-हा

असलम - हाँ सच कहा! इन दंगो की आड़ में हम अपना काम करते रहेंगे। अब ज्यादा देर मत करो। इस बाबू को ठिकाने लगाओ और कट लो यहाँ से।

शेष सभी दंगाई - जी भाई।

दंगाई दीपक को पकड़कर एक बक्से में डाल देता है और बक्से का ढक्कन बन्द कर देता है।

(आशीष का प्रवेश)

आशीष(दीपक को पुकारते हुए) - दीपक! दीपक मित्र कहाँ हो तुम?

आशीष सभी दंगाईयो को देखता है।

आशीष (दंगाईयों से) - तुम लोग कौन हो ? मेरा दोस्त दीपक इस ऑफिस में आया था। कहाँ है वह?

असलम (आशीष से) - उसे जहाँ जाना था। वहाँ पहुँच चुका है।
आशीष - क्या बकते हो। दीपक कहाँ है?

असलम (अपने साथियों से) - इसे भी वहीं पहुँचा दो जहाँ इसका दोस्त है। मारो इसे!

(दंगाई आशीष पर टूट पड़ते हैं। आशीष सभी को पीटता है। सभी दंगाई भाग जाते हैं। आशीष असलम को पकड़ता है और उसे पीटता है। वह उस पर लातों घूंसों की बौछार करता है।)

आशीष (असलम से) - बोलो दीपक कहाँ है? नहीं तो आज ही तुम्हें नर्क का वासी वना दूँगा।

असलम (इशारा करते हुए) - उस बक्से में।

(आशीष उस ओर जाकर बक्सा खोलता है।)
(असलम का भागते हुए प्रस्थान)

आशीष दीपक को बाहर निकालता है।

आशीष (दीपक के मुँह व हाथ खोलते हुए) - मित्र ! मित्र देखो मैं हूँ। होश में आओ।

( दीपक बुरी तरह चोटिल है। आशीष, दीपक को कन्धे पर उठाता है। उसका प्रस्थान)

(दृश्य परिवर्तन)

दृश्य: 4

(अस्पताल का दृश्य है। दीपक बेड पर है। रमाशंकर, आस्था व शकुन्तला उसके पास हैं।)

(आशीष का प्रवेश)

रमाशंकर(आशीष से) - मैं आजीवन स्वयं को बड़ी जाति का कहता रहा लेकिन तुमने सिखाया, बड़ा वह है जिसका हृदय बड़ा है। जिसके हृदय में सबके लिए प्रेम है, वही बड़ी जाति का है। मुझे क्षमा कर दो बेटा।

(कहते हुए रमाशंकर आशीष के सम्मुख हाथ जोड़ते हैं।)

आशीष (रमाशंकर के हाथ थामकर) - पिता जी ! मैं सदा छोटा था और छोटा ही रहूँगा। छोटे सदा प्रेम पाते हैं। मुझे बड़ा न वनाइए अन्यथा आपके प्रेम से वंचित हो जाऊँगा।

(रमाशंकर आशीष को गले लगाते हैं। दोनों दीपक के पास जाते हैं।)

दीपक(आशीष से) - अन्ततः तुमने सबको गलत सिद्ध कर दिया। सबको हरा दिया तुमने मित्र!

आशीष - नहीं मित्र! मैने किसी को नहीं हराया। हरिकृपा से सबको जीत लिया इस हरिजन ने!

(सभी हँसते हैं। शकुन्तला आशीष के सिर पर हाथ रख देती है।)

आस्था(आशीष से) - सच कहा भाई!

(सभी हँसते हैं।)

(दृश्य की समाप्ति)

नेपथ्य से स्वर उठता है - ’’ऊँच-नीच, छुआ-छूत, जाति-पाति और सवर्ण हरिजन का भेदभाव हम मानवों की देन है। हम सभी परमात्मा की सन्तानें हैं। सभी आपस में भाई वन्धु हैं।
जिस प्रकार सूर्य अपना प्रकाश, नदी अपना जल तथा वृक्ष अपने फल देने में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करते। उसी प्रकार परमात्मा भी अपनी संतानों में भेदभाव नहीं करते और न ही भेदभाव का आदेश देते हैं। इसलिए सभी को सम्मान दें, सभी से प्रेम करें और जाति-पाति की दूषित मानसिकता का अंत करके एक सुन्दर समाज की स्थापना करें।

’’परमपिता परमेश्वर की जय हो’’

(समाप्त)

लेखकः निशान्त कुमार सक्सेना

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7 Comments

Seema Priyadarshini sahay

07-Oct-2022 09:44 PM

बेहतरीन

Reply

Nishant kumar saxena

12-Oct-2022 07:41 PM

धन्यवाद mam

Reply

Milind salve

07-Oct-2022 05:33 PM

बहुत खूब

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Nishant kumar saxena

12-Oct-2022 07:41 PM

धन्यवाद

Reply

shweta soni

06-Oct-2022 08:47 PM

Behtarin rachana

Reply

Nishant kumar saxena

12-Oct-2022 07:44 PM

धन्यवाद

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