रिश्तों की राजनीति- अंतिम भाग 26
अंतिम भाग 26
अभिजीत और सिद्धि के घर में आने से घर के माहौल में गर्मी बढ़ने लगी थी। अक्षय, अभिजीत को पहले से ही पसन्द नहीं करता था और अब उसका उसी के घर में आकर रहना उसे खल रहा था। अक्षय और सान्वी ने सोचा कुछ और था, लेकिन हो कुछ और रहा था।
अक्षय ने एक दिन अपने बाबा से कहा…. बाबा मैं सोच रहा हूँ क्यों न ताई और अभिजीत को एक अलग घर खरीद कर दे दें शादी के उपहार के रूप में, वैसे भी हमने उन्हें शादी में कुछ दिया नहीं।
जगताप पाटिल खुश हो जाते हैं अक्षय की बात सुनकर। उन्हें अच्छा लगता है यह देखकर कि अक्षय को अपनी बहन की चिंता है।
अक्षय और सान्वी एक घर पसन्द करके सिद्धी ताई और अभिजीत को उपहार स्वरूप भेंट कर देते हैं।
अभिजीत और सिद्धि समझ जाते है कि घर उपहार में देना सिर्फ एक तरीका है उन्हें जगताप पाटिल के बंगले और उनकी नजरों से उन्हें दूर रखने का। लेकिन वो कुछ कहते नहीं और ख़ुशी-ख़ुशी नये घर में शिफ्ट हो जाते हैं। फिलहाल के लिए मुफ्त में मिली एक कम्पनी और घर काफी था तसल्ली के लिए।
इधर सान्वी और अक्षय भी खुश थे कि आखिरकार सिद्धि ताई और अभिजीत अपने घर में शिफ्ट हो गए और उन्हें उनसे छुटकारा मिला। सान्वी के अनुसार यह फैसला उसके पारिवारिक जीवन में शांति बनाए रखने के लिए बिल्कुल सही था। वो जानती थी कि अक्षय और अभिजीत कॉलेज के दिनों से एक-दूसरे को पसन्द नहीं करते और यह नापसन्दगी अभी भी कहीं न कहीं दोनों के मन में विराजमान थी, बस रिश्तों की डोर में बंधे होने के कारण एक दूसरे को लेकर नाराज़गी प्रत्यक्ष रूप से बाहर जाहिर नहीं करते थे।
लेकिन उसे पता था कि अगर ज्यादा दिन तक अभिजीत दादा घर में रुक गए तो अक्षय और उनके बीच मनमुटाव शुरू हो जायेगा। अक्षय अगर दादा के बारे में कुछ गलत कहेगा तो उसे अच्छा नहीं लगेगा। जो भी हो अभिजीत उसका भाई था, अपने भाई के खिलाफ सुनना किस बहन को अच्छा लगेगा और अक्षय उसका पति था, भाई के कारण उनके आपसी सम्बन्धों में समस्या आए, उसे यह भी मंजूर नहीं था।
बस इन्हीं बातों के बारे में सोचते हुए सान्वी ने अक्षय के साथ मिलकर सिद्धि ताई और दादा को नया घर खरीदकर दिया था। अक्षय सान्वी की इसी सोच का कायल था कि उसका कोई भी फैसला बेवजह नहीं होता था और हर फैसले में कुछ न कुछ फायदा जरूर होता था, चाहे वो आर्थिक हो या फिर भावनात्मक।
सभी का जीवन अपनी-अपनी गति से सुचारू रूप से चल रहा था। जगताप पाटिल बहुत खुश थे अपने परिवार को खुश देखकर। उनके पोतों में तो उनकी जान बसी थी। दोनों ही सुंदर, नटखट प्यारे से थे। शुरुवात में जहाँ उन्हें सान्वी चालाक, तिकड़मबाज सी लड़की लगती थी, वही अब उन्हें सबसे ज्यादा समझदार, गुणवान लगती थी। अक्षय की जिंदगी को सही दिशा देने में उसका बहुत बड़ा हाथ था। उसी के उचित मार्गदर्शन की वजह से आज अक्षय एम एल ए की कुर्सी पर विराजमान था। जनता में उसकी छवि एक आदर्श बेटे, पति और पिता की बन चुकी थी।
उनकी नज़र में सान्वी कहीं भी गलत नहीं थी। महत्वकांशाएँ पालना तब तक बुरी बात नहीं है, जब तक वो आपको सही दिशा में लेकर जा रही हैं। हर परिस्थिति, हर व्यक्ति के साथ तारतम्य बिठाने का एक तरीका होता है। सामान्य तौर पर हम एक ही तरीका सब रिश्तों और परिस्थितियों में तालमेल बैठाने के लिए इस्तेमाल करते हैं, जो कि गलत है। सान्वी ने अक्षय से तारतम्य बैठाने के लिए जो राजनीति अपनायी थी, वो बिल्कुल ठीक थी। सान्वी की राजनीति से सबको फायदा ही हुआ था, नुकसान नहीं।
पहले वो राजनीति के क्षेत्र में अकेले थे, सिद्धि को राजनीति में कोई रूचि नहीं थी, अक्षय को अय्याशी से फुर्सत नहीं थी। मन ही मन उन्हें यही चिंता थी कि मरने के बाद उनके नाम को कौन आगे ले जायेगा? सान्वी के आने से अब यह चिंता भी खत्म हो चुकी थी। उनकी राजनीतिक विरासत को आगे ले जाने वालों की सूची में अक्षय और सान्वी तो थे ही, अब साथ में उनके दो पोते भी थे।
अब उनका राजनीति से सन्यास लेने का मन करता था। दुबारा चुनाव आने पर उन्होंने इस बार चुनाव न लड़ने का निर्णय लिया था और अपनी सीट से सान्वी को टिकट देने की सिफारिश की थी, जो मँजूर भी हो गयी थी। अक्षय और सान्वी अपने-अपने क्षेत्र के लिए चुनाव प्रचार करने में व्यस्त थे। जगताप पाटिल अब अपना ज़्यादातर वक़्त घर में अपने पोतों के संग गुजारने लगे थे।
अभिजीत और सिद्धि को जब यह बात पता चली कि बाबा ने अपनी सीट की टिकट सान्वी को दिलवा दी है, तो दोनों ही बहुत निराश हुए थे। अभिजीत ने सिद्धि को कहा…..अगर तुम्हारे बाबा को चुनाव की टिकट दिलवानी ही थी तो सान्वी की बजाय तुम्हें दिलवानी चाहिए थी। कहीं ऐसा न हो एक दिन तुम्हारे हिस्से की जयदाद भी सान्वी, अक्षय और उनके बच्चों के नाम करके ऊपर जाएं। बेटी तो हमारी भी है, लेकिन उसे देखकर इतना खुश नहीं होते, जितना अक्षय और सान्वी के बेटों को देखकर खुश होते हैं।
तुम्हें तो खुश होना चाहिए कि अंत में फायदा तो तुम्हारी बहन का ही हो रहा है। मेरे घर में मुझसे ज्यादा तुम्हारी बहन की पूछ है। पति को तो नचा ही रही है उंगलियों में, साथ में ससुर को भी नचा रही है। काश! तुम भी अपनी बहन जैसे तेज होते तो बाबा की नजरों में अपनी कुछ जगह बना पाते।
अभिजीत चिढ़कर कहता है….चलो मैं तो पराया हूँ, बेकार हूँ, तेज नहीं हूँ लेकिन तुम तो उनकी अपनी हो, तुम्हारे अंदर तो राजनेता का खून दौड़ रहा है, तुम क्यों अपने बाबा की नज़र में अपनी जगह नहीं बना पायी? क्यों उन्होंने बेटी की जगह बहु को त्वज्जो दी? बोलो….
सिद्धि को लगता है कि बात कुछ ज़्यादा ही आगे बढ़ रही है, वो अभिजीत को शांत करते हुए कहती है….अक्षय और सान्वी की वजह से हम दोनों क्यों लड़ रहे हैं? हम दोनों पति पत्नी हैं। अगर कोई नुकसान होगा तो सिर्फ मेरा या तुम्हारा नहीं, हम दोनों का होगा। हमें कुछ करना पड़ेगा अभिजीत, इस बारे में बाबा से बात करनी पड़ेगी।
सान्वी और अक्षय पार्टी के काम से बाहर गए होते हैं। बाबा घर में बच्चों के साथ गार्डन में खेल रहे होते हैं। तभी सिद्धि अपनी बेटी ख़ुशी के साथ आती है बाबा से मिलने के लिए।
औपचारिक बातचीत के बाद सिद्धि अपने बाबा से कहती है….बाबा आप सान्वी को कुछ ज्यादा ही भाव नहीं दे रहे आजकल?
क्यों क्या हुआ?
आपने अपनी सीट पर सान्वी को टिकट क्यों दिलवा दी?
उसे राजनीति की अच्छी समझ है इसलिए।
आप मुझे या अभिजीत को भी तो दिलवा सकते थे?
पहली बात तुमने कभी राजनीति में अपनी दिलचस्पी दिखायी नहीं, तुम तो हमेशा इससे दूर भागती रही और अभिजीत में अपनी बहन जितना दिमाग है नहीं तुनकमिजाज आदमी है वो। राजनीति में जुबान ही सब कुछ है। सिर्फ मेरी बेटी होने के दम पर चुनाव नहीं जीत सकती हो तुम, सान्वी की जनता में एक पहचान है, इसलिए उसकी टिकट की सिफारिश की थी। मुझे पूरा भरोसा है कि वो चुनाव जीत जायेगी।
सिद्धि चिढ़कर कहती है….आपको तो बस बेटा-बहु और उनके बच्चे प्यारे हैं। आप हमेशा उन्हीं के भले के बारे में सोचते हैं। जितना प्यार आप अपने पोतों से करते हैं, उतना प्यार कभी आपने अपनी पोती से किया है?
पोते तो दादा कहते-कहते थकते नहीं है लेकिन तुम्हारी बेटी तो हाथ लगाने पर भी रोती है। ऐसे में कैसे प्यार करूँ, जब वो पास आती ही नहीं है। अक्षय के बच्चे मिलनसार हैं, सबके साथ आसानी से घुलमिल जाते हैं।
सिद्धि तुम्हारे मन में क्या है साफ़-साफ़ कहो, मेरे पोतों को बीच में मत लाओ।
मुझे मेरा हिस्सा चाहिए जयदाद में।
जगताप पाटिल विस्मय से सिद्धि की ओर देखते हुए कहते हैं….तुम तो ऐसी नहीं थी सिद्धि कभी भी, तुममें इतनी ईर्ष्या, इतना लालच कहाँ से आ गया?
बाबा, अपना हिस्सा ही माँग रही हूँ, अक्षय या उसके बच्चों का नहीं।
मैंने तुम्हारी शादी की मंजूरी ही इस शर्त पर दी थी कि भविष्य में तुम्हें जयदाद में हिस्सा नहीं मिलेगा।
बाबा, आपकी बात सही है, लेकिन मैंने भी यह लिखित में लिखकर नहीं दिया था कि मैं अपना हिस्सा अक्षय के नाम कर दूँगी।
आखिर आ ही गयी अभिजीत की असलियत सामने। वही तुम्हें भड़का रहा है।
बाबा, इसमें अभिजीत को बीच में मत लाइए। यह मेरे और आपके बीच की बात है।
खाना खाकर जाना सिद्धि, मेरा सिर दर्द कर रहा है, मैं आराम करने कमरे में जा रहा हूँ।
बाबा, खाना मैं अपने घर जाकर खा लूँगी। मैं नहीं चाहती कि आपसी मसले कोर्ट में जाकर सुलझाने पड़े।
इतना कहकर सिद्धि अपनी बेटी को वहाँ से लेकर निकल जाती है और जगताप पाटिल गुस्से से अपने कमरे में चले जाते हैं।
शाम को अक्षय और सान्वी घर आते हैं तो बच्चे बताते हैं कि आज घर में आत्या(बुआ) आई थी और आजोबा(दादा जी) से जोर-जोर के चिल्लाकर बात कर रही थी?
क्या कह रही थी आत्या?
पता नहीं, बस हमें हिस्सा शब्द समझ में आया।
ठीक है, जाओ अब तुम दोनों जाकर खेलो।
दोनों बच्चों के बाहर जाते ही अक्षय, सान्वी से कहता है….जरूर हिस्सा माँगने आयी होगी अपना।
अक्षय शांत हो जाओ, ये मामला गर्मी से सुलझने वाला नहीं है। अगर उसे हिस्सा नहीं दिया तो वो कोर्ट में चली जायेगी। इससे उसका तो कुछ नहीं जायेगा लेकिन जनता के बीच तुम्हारी छवि खराब हो जायेगी। लोग कहेंगे भाई ने बहन का हिस्सा मार लिया।
तो फिर क्या करें सान्वी?
देखो ये तो बाबा के ऊपर है वो सिद्धि ताई को कितना हिस्सा देंगे, और इसके लिए बाबा पर दबाव बनाना ठीक नहीं है। वैसे भी उनकी बेटी है, हक बनता है उसका, जैसे मेरा हक बनता है मेरे घर की प्रॉपर्टी में।
तुम परेशान मत हो, जो भी होगा हमारे पक्ष में होगा।
रात को खाने की मेज़ पर जब बाबा नहीं आते, तो सान्वी, दीना नाथ काका को सबका खाना बाबा के कमरे में लगाने के लिए कहती है।
जगताप पाटिल जब अपने कमरे में खाने के साथ अक्षय-सान्वी और बच्चों को देखते हैं तो ख़ुशी से उनका चेहरा चमकने लगता है।
मेरा मन नहीं था खाने का, इसलिए खाने के लिए नीचे नहीं आया।
अक्षय कहता है आप नीचे नहीं आये इसलिए हम ऊपर आ गए।
सान्वी भी मुस्कुराते हुए कहती है….बाबा, मन को एक कोने में रखिये और हमारे साथ खाना खाइये।
बच्चे भी जिद करने लगते हैं तो उन्हें सबके साथ खाना, खाना ही पड़ता है। मन ही मन वो बेहद खुश होते हैं ये देखकर कि सबको उनकी कितनी फ़िक्र है।
खाना खाने के बाद सान्वी बच्चों को सुलाने नीचे ले जाती है और बाबा अक्षय को जरुरी बात करने के लिए रोक लेते हैं।
बाबा की सारी बात सुनने के बाद अक्षय एक ही बात कहता है….बाबा, ये आपकी कमाई हुई जयदाद है, कोई बाप-दादा की तो है नहीं। आप किसको कितना देना चाहते हैं या नहीं देना चाहते हैं, ये आपकी मर्जी है। हमारे लिए, हमारे बच्चों के लिए आप ही उनकी जयदाद हैं।
घर की बात का कोर्ट में जाना ठीक नहीं है, बाकी आप समझदार हैं। आप देखिये जो आपको करना है। हमें पूरा भरोसा है आप पर।
जगताप पाटिल, अक्षय की बातों से बहुत खुश होते हैं। उन्हें अपने बेटे से इतनी समझदारी की उम्मीद नहीं थी। सान्वी ने तो उनके बेटे की काया ही पलट दी थी। हर जगह सच्चाई काम नहीं आती, कुछ मसलों को सुलझाने के लिए राजनीति भी करनी पड़ती है। जब तक उनके परिवार की डोर सान्वी के हाथ में थी, उन्हें भरोसा था कि उनकी विरासत सुरक्षित है। उन्होंने अपनी जयदाद का साठ प्रतिशत हिस्सा अक्षय के परिवार के नाम और चालीस प्रतिशत सिद्धि के नाम कर दिया था।
सान्वी और अक्षय अपने-अपने क्षेत्रों से चुनाव जीत गए थे।
सिद्धि की अपने परिवार से नाराज़गी की खबर विपक्ष तक पहुँच चुकी थी। अक्षय और सान्वी को हराने के लिए सिद्धि और अभिजीत को विरोधी पार्टी ने अपनी पार्टी में शामिल कर लिया था।
इस बात से जगताप पाटिल को मानसिक तौर पर आघात लगा था।
उनके आकस्मिक निधन ने अक्षय और सान्वी को तोड़कर रख दिया था।
जगताप पाटिल के स्वर्गवास के बाद अक्षय और सान्वी ने उनकी स्मृति में गरीब बच्चों के लिए स्कूल बनवाने का निर्णय लिया था। एक तरफ उनके इस फैसले से जनता में उनकी वाहवाही हो रही थी, वहीं दूसरी तरफ विपक्ष में शामिल अभिजीत और सिद्धि इसे राजनितिक रणनीति का हिस्सा बता रहे थे।
सान्वी की राजनीति ने न सिर्फ उसका, बल्कि अक्षय और उसके परिवार का भविष्य भी बदलकर रख दिया था। राजनीति उतनी भी बुरी नहीं है जितना लोग समझते हैं। यह आपके खुद के नजरिये पर निर्भर करता है, आप राजनीति को किस दृष्टि से देखते हैं और किस तरह की राजनीति करते हैं।
आज अक्षय जगताप पाटिल महाराष्ट्र के चीफ मिनिस्टर के पद पर आसीन था और सान्वी डिप्टी चीफ मिनिस्टर के पद पर। उन्होंने अपने बाबा जगताप पाटिल के नाम पर कई स्कूल, कॉलेज खुलवाए। जनता में उनकी लोकप्रियता को कोई मात दे सके, ऐसा किसी पार्टी में दम नहीं था। सान्वी और अक्षय की राजनीति सब पर भारी थी। वहीं दूसरी तरफ सिद्धि और अभिजीत बस विपक्ष के प्यादे भर बनकर रह गए थे।
समाप्त
❤सोनिया जाधव
Supriya Pathak
11-Oct-2022 06:37 PM
Bahut khoob 🙏🌺
Reply
आँचल सोनी 'हिया'
10-Oct-2022 11:15 PM
Bahut khoob 💐👍
Reply
Chetna swrnkar
10-Oct-2022 06:38 PM
Bahut achhi rachana
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