Amar Singh Rai

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लेखनी प्रतियोगिता -14-Oct-2022

        " स्वैच्छिक "
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जाती जब ससुराल सुकन्या,
  जनक दिया करते उपहार।
    कमी रहे न किसी चीज की,
      खुशी रहे उसका घरबार।।

माँग हुआ करती न पहले,
  दान 'स्वैच्छिक' होता था।
    इच्छा और खुशी से देना,
      नहीं अनैच्छिक होता था।

परिवर्तित हो धीरे-धीरे,
  दान-दहेज हुआ अधियाचन।
    जबकि दाता सदा बड़ा हो,
      माँगने वाला है अभियाचन।

बोली लग नीलामी होती,
  वर बिकता है बीच बाजार।
    शादी संस्कार न होकर,
      ये भी हुआ एक व्यापार।।

दहेज के ही कारण अक्सर,
  बहुएँ जारी जाती हैं।
    भ्रूण रूप में ही कन्याएँ,
       पेट में मारी जाती हैं।

दानव रूपी इस दहेज को,
  हर जन मन से करदे दूर।
    मानो एक बहू और बेटी,
       ये दोनों हैं घर का नूर।।

मौलिक/
         अमर सिंह राय (शिक्षक )
             नौगांव, मध्य प्रदेश 

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8 Comments

Suryansh

20-Oct-2022 06:48 AM

लाजवाब लाजवाब

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Abhinav ji

15-Oct-2022 08:37 AM

Very nice sir

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बहुत ही सुंदर और यथार्थ अभिव्यक्ति

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