दैनिक प्रतियोगिता हेतु स्वैच्छिक विषय सूरदास
सूरदास
पद
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ऊधौ ,तुम हो अति बडभागी।
अपरस रहते स्नेह जगा तै,नाहिंन मन अनुरागी।
पुरइनि पात रहते जल भीतर ,ता रस देह न दागी।
ज़यौं जल माहं तेल की गागरि, बूंद न ताकौं दागी।
प्रीति नदी मे पाउन न बोल्यौ दृष्टि न रुप परागी।
सूरदास अबला हम भोरी,गुर चांटी ज्यों पागी।।
अर्थ,
गोपियां ऊधौ से कहती है, हे उद्धव तुम सचमुच बहुत भाग्यशाली हो क्योंकि तुम प्रेम बंधन से बिल्कुल अछूते अर्थात स्वतंत्र हो और ना ही तुम्हारा मन किसी के प्रेम में अनुरक्त हुआ है। जिस प्रकार कमल के पत्ते सदा जल के अंदर रहते हैं परंतु बेजल से अछूते ही रहते हैं, उन पर जल की एक बूंद का भी डब्बा नहीं लगता और जिस प्रकार तेल की मटकी को जल में रखने पर जल की एक बूंद भी उस पर नहीं ठहरती, उसी प्रकार तुम कृष्ण के समीप रहते हुए भी उनके प्रेम बंधन से सर्वथा मुक्त हो। तुमने प्रेम रूपी नदी में कभी पाव ही नहीं धोया अर्थात तुमने कभी किसी से प्रेम ही नहीं किया और ना ही कभी किसी के रूप लावण्य ने तुम्हें आकर्षित किया है। गोपियां उद्धव से कहती है कि हम तो भोली भाली अब लाए हैं और हम कृष्ण के प्रेम में पग गई हैं, अतः उन से विमुख नहीं हो सकती हमारी स्थिति उन चीटियों के समान है जो गुड पर आसक्त होकर उससे चिपक जाती हैं और फिर स्वयं को छुड़ाना पाने के कारण वही प्राण त्याग देती हैं।
सुनीता गुप्ता "सरिता"
Suryansh
20-Oct-2022 07:14 AM
बहुत ही उम्दा और सशक्त रचना
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Pratikhya Priyadarshini
18-Oct-2022 01:11 AM
Achha likha hai 💐
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आँचल सोनी 'हिया'
16-Oct-2022 02:51 PM
Achha likha h
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