पिता
पिता!
उँगुली पकड़के चलना सिखाता है पिता,
छोटे से परिन्दे का गगन होता है पिता।
संघर्ष की आंधियों से वह लड़ -लड़कर,
अनुशासन में रहना सिखाता है पिता।
जब आता है वो मौसम मेले -ठेले का,
मनचाहा खिलौना भी देता है पिता। पढ़ाता-लिखाता वो सुलाता पेट पर,
हौसला औलाद का बढ़ाता है पिता।
हँसी और खुशी का तो है वो पिटारा,
सोने के जैसे आग में तपाता है पिता।
सूरज, चाँद, सितारों से भरा है गगन,
पर असली पहचान दिलाता है पिता।
बदलती हैं सारी ऋतुयें,मगर वो नहीं,
धूप-छाँव के दांव-पेंच से बचाता है पिता।
मधुव्रत, मधुरस से भरता तो है ही वो,
निःसर्ग को बचाना सिखाता है पिता।
सूखने नहीं देता उम्मीदों की नदी,
रोटी-कपड़ा-मकान बन जाता है पिता।
पितृ ऋण से उऋण पुत्र हो नहीं सकता,
रक्षा-कवच बनके खड़ा रहता है पिता।
रामकेश एम.यादव(कवि,साहित्यकार),मुंबई
Gunjan Kamal
10-Dec-2022 11:21 PM
शानदार प्रस्तुति 👌
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Supriya Pathak
10-Dec-2022 08:47 PM
Very nice 🌺👍
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Pranali shrivastava
10-Dec-2022 07:35 PM
शानदार
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