Sunita gupta

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स्वैच्छिक ,ख्यालों मे बसी

जो खयालों में बसी उसको भुलाऊॅं कैसे,
डर है रुसवाई का दुनिया को दिखाऊॅं कैसे।

ओस की बूंद सी पलकों पे सजी रहती है,
गिर न जाये कहीं नजरों को झुकाऊॅं कैसे।

मुंतजिर आज भी सीने से मेरे लगने को,
जुल्फ के साये की हसरत को बताऊॅं कैसे।

ख़्वाब में सिर्फ एक बार ही नजरों सेे पिलाई मुझको,
उन निगाहों में भरी मय को भुलाऊॅं कैसे।

बेख्याली में बड़ी दूर निकल आया हूं,
न दो आवाज मुझे के लौट के आऊॅं कैसे।
सुनीता गुप्ता सरिता कानपुर 

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4 Comments

बहुत ही सुंदर

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Varsha_Upadhyay

18-Dec-2022 01:56 PM

बहुत सुंदर

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बहुत सुंदर सृजन। बधाई

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