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गीत छवि अंकित नयनों में मेरे,

गीत(16/16)
छवि अंकित नयनों में मेरे,
उर में रूपसि वास तुम्हारा।
जब भी चित्त विकल यह होता,
बनती तब अनुभूति सहारा।।

भौंह मोहिनी,काली अलकें,
चक्षु चंचला हिरणी जैसे।
अधर गुलाबी रस आपूरित,
रोके राही मन को कैसे??
तेरी चाहत में हे रूपसि!
बरसे नभ-बादल आवारा।।
   जब भी चित्त विकल यह होता,
     बनती तब अनुभूति सहारा।।

तन से विलग हुए हम दोनों,
बसे कहीं जा दूर देश में।
बोली बदली,भाषा बदली,
अब तो रहते भिन्न वेश में।
फिर भी मात्र स्मरण तेरा,
लगता उर को प्यारा-प्यारा।।
    जब भी चित्त विकल यह होता,
     बनती तब अनुभूति सहारा।।

उत्तर-दक्षिण, पूरब-पश्चिम,
विकट प्यार पर पहरा रहता।
अंबर-अवनि-उदधि से विस्त्रित,
प्रेम और भी गहरा लगता।
होता अंत सभी का जग में,
नहीं प्रेम का मिले किनारा।।
    जब भी चित्त विकल यह होता,
     बनती तब अनुभूति सहारा।।

होता क्षोभ वियोग से यद्यपि,
पर,यथार्थ यही है जग का।
योग-वियोग-योग जीवन है,
चलते रहना दर्शन मग का।
गले लगा जो जिए वासना,
साँच प्रेम ने उसे नकारा।।
    जब भी चित्त विकल यह होता,
     बनती तब अनुभूति सहारा।।
               ©डॉ0हरि नाथ मिश्र
                    9919446372

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3 Comments

Muskan khan

08-Jan-2023 05:15 PM

Well done

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Renu

08-Jan-2023 04:49 PM

👍👍🌺

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Rajeev kumar jha

07-Jan-2023 07:47 PM

Nice

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