हिंदी कहानियां - भाग 40
जब महर्षि उग्रश्रवा, शौनक आदि ऋषियों को महाभारत की कथा सुना रहे थे तो उसी समय सर्प जाति और भगवान् विष्णु के वाहन गरुण जी की उत्पत्ति का वर्णन शुरू हुआ | उग्रश्रवा जी से प्रसन्न हो कर महर्षि शौनक जी ने उनसे कहा "सूतनन्दन उग्रश्रवा ! अब तुम आस्तीक ऋषि की कथा सुनाओ, जिन्होंने जनमेजय के सर्प-सत्र में नागराज तक्षक की रक्षा की थी ।
तुम्हारे मुँह से निकली कथा मिठास से भरी और सुन्दर होती है । तुम अपने पिता के अनुरूप पुत्र हो । उन्हीं के समान हमें उनकी कथा सुनाओ, हम तुमसे प्रसन्न है" । उग्रश्रवा जी ने कहा "आयुष्मन् ! मैंने अपने पिता के मुँह से ऋषि आस्तीक की कथा सुनी है । वही आप लोगों को सुनाता हूँ । सत्ययुग में दक्ष प्रजापति की दो कन्याएँ थीं-कद्रू और विनता । उनका विवाह कश्यप ऋषि से हुआ था ।
एक दिन ब्रह्मर्षि कश्यप ने अपनी धर्मपत्नियों से प्रसन्न होकर कहा, "तुम्हारी जो इच्छा हो, मुझसे वर माँग लो" । कद्रू ने कहा, "एक हजार समान रूप से तेजस्वी नाग मेरे पुत्र हों" । विनता बोली, "तेज, शरीर और बल-विक्रम में कद्रू के पुत्रों से श्रेष्ठ केवल दो ही पुत्र मुझे प्राप्त हों" । कश्यप जी ने 'एवमस्तु' कहा । दोनों प्रसन्न हो गयीं । सावधानी से गर्भ-रक्षा करने की आज्ञा देकर कश्यप जी वन में चले गये ।
समय आने पर कद्रू ने एक हजार और विनता ने दो अंडे दिये । दासियों ने प्रसन्न होकर गरम बर्तनों में उन्हें रख दिया । पाँच सौ वर्ष पूरे होने पर कद्रू के तो हजार पुत्र निकल आये, परंतु विनता के दो बच्चे नहीं निकले । कुछ समय और बीतने पर अत्यंत अधीर हुई विनता ने अपने हाथों से एक अंडा फोड़ डाला । उस अंडे का शिशु आधे शरीर से तो पुष्ट हो गया था, परंतु उसका नीचे का आधा शरीर अभी कच्चा था ।
नवजात शिशु ने क्रोधित होकर अपनी माता को शाप दिया, 'माँ ! तूने लोभवश मेरे अधूरे शरीर को ही निकाल लिया है । इसलिये तू अपनी उसी सौत की पाँच सौ वर्ष तक दासी रहेगी, जिससे तू डाह करती है । यदि मेरी तरह तूने दूसरे अंडे को भी फोड़कर उसके बालक को अंगहीन या विकृतांग न किया तो वहीं तुझे इस शाप से मुक्त करेगा ।
यदि तेरी ऐसी इच्छा है कि मेरा दूसरा बालक बलवान् हो तो धैर्य के साथ पाँच सौ वर्ष तक और प्रतीक्षा कर" । इस प्रकार शाप देकर वह बालक आकाश में उड़ गया और भगवान् सूर्य के रथ का सारथि बना । प्रात:कालीन लालिमा उसी की झलक है । उस बालक का नाम अरुण हुआ ।
इस घटना के काफी समय बाद एक बार कद्रू और विनता दोनों बहनें एक साथ ही घूम रही थीं कि उन्हें पास ही उच्चैःश्रवा नाम का घोड़ा दिखायी दिया । यह अश्व-रत्न अमृत-मन्थन के समय उत्पन्न हुआ था और समस्त अश्वों में श्रेष्ठ, बलवान्, विजयी, सुन्दर, अजर, दिव्य एवं सब शुभ लक्षणों से युक्त था । उसे देखकर वे दोनों आपस में उसका वर्णन करने लगीं ।
इसी उच्चैःश्रवा घोड़े को देखकर कद्रू ने विनता से कहा "बहिन ! जल्दी से बताओ तो यह घोड़ा किस रंग का है?" विनता ने कहा 'बहिन ! यह अश्वराज श्वेतवर्ण का है । तुम इसे किस रंग का समझती हो"? कद्रू ने कहा "अवश्य ही इस घोड़े का रंग सफेद है, परंतु पूँछ काली है । आओ, हम दोनों इस विषय में बाजी लगावें ।
यदि तुम्हारी बात ठीक हुई तो मैं तुम्हारी दासी रहूंगी और मेरी बात ठीक हुई तो तुम मेरी दासी रहना" । इस प्रकार दोनों बहनें आपस में बाजी लगाकर और दूसरे दिन घोड़ा देखने का निश्चय करके घर चली गयीं वहाँ से | कद्रू ने विनता को धोखा देने के विचार से अपने हजार पुत्रों को यह आज्ञा दी कि "पुत्रो ! तुम लोग शीघ्र ही काले बाल बनकर उच्चैःश्रवा की पूँछ ढक लो, जिससे मुझे दासी न बनना पड़े" ।
जिन सर्पों ने उसकी आज्ञा नहीं मानी, उसने, उन्हें उसने शाप दिया कि "जाओ, तुम लोगों को अग्नि, जनमेजय के सर्प-यज्ञ में जलाकर भस्म कर देगी" । यह दैवसंयोग की बात है कि कद्रू ने अपने पुत्रों को ही ऐसा शाप दे दिया । यह बात सुनकर ब्रह्मा जी और समस्त देवताओं ने उसका अनुमोदन किया । उन दिनों पराक्रमी और विषैले सर्प बहुत प्रबल हो गये थे । वे दूसरों को बड़ी पीड़ा पहुँचाते थे प्रजा के हित की दृष्टि से यह उचित ही हुआ ।
"जो लोग दूसरे जीवों का अहित करते हैं, उन्हें विधाता की ओर से ही प्राणान्त दण्ड मिल जाता है" । ऐसा कहकर ब्रह्माजी ने भी कद्रू की प्रशंसा की । कद्रू और विनता ने आपस में दासी बनने की बाजी लगाकर बड़े रोष और आवेश में वह रात बितायी । दूसरे दिन प्रात:काल होते ही निकट से घोड़े को देखने के लिये दोनों चल पड़ीं ।
उधर सर्पों ने परस्पर विचार करके यह निश्चय किया कि 'हमें माता की आज्ञा का पालन करना चाहिये । यदि उसका मनोरथ पूरा न होगा तो वह प्रेम भाव छोड़कर रोष पूर्वक हमें जला देगी । यदि इच्छा पूरी हो जायगी तो प्रसन्न होकर हमें अपने शाप से मुक्त कर देगी । इसलिये चलो, हम लोग घोड़े की पूँछ को काली कर दें ।' ऐसा निश्चय करके वे उच्चैःश्रवा की पूँछ से बाल बनकर लिपट गये जिससे वह काली जान पड़ने लगी ।
इधर कद्रू और विनता बाजी लगाकर आकाशमार्ग से समुद्र को देखते देखते दूसरे पार जाने लगी। दोनों ही घोड़े के पास पहुँचकर नीचे उतर पड़ी । उन्होंने देखा कि घोड़े का सारा शरीर तो चन्द्रमा की किरणों के समान उज्ज्वल है, परंतु पूँछ काली है । यह देखकर विनता उदास हो गयी, कद्रू ने उसे अपनी दासी बना लिया था ।
उधर समय बीतता रह और कुछ समय बाद, समय पूरा होने पर महा तेजस्वी गरुड़ माता की सहायता के बिना ही अण्डा फोड़कर उससे बाहर निकल आये। उनके तेज से दिशाएँ प्रकाशित हो गयी। उनकी शक्ति, गति, दीप्ति और वृद्धि विलक्षण थी । नेत्र बिजली के समान पीले और शरीर अग्नि के समान तेजस्वी । वे जन्मते ही आकाश में बहुत ऊपर उड़ गये। उस समय वे ऐसे जान पड़ते थे, मानो दूसरा बड़वानल ही हो ।
देवताओं ने तो समझा कि अग्नि देव ही इस रूप में बढ़ रहे हैं । उन्होंने विश्व रूप अग्नि की शरण में जाकर प्रणाम पूर्वक कहा, "अग्नि देव ! आप अपना शरीर मत बढ़ाइये । क्या आप हमें भस्म कर डालना चाहते हैं? देखिये, देखिये, आपकी यह तेजोमयी मूर्ति हमारी ओर बढ़ती आ रही है"। अग्नि ने कहा, "देवगण यह मेरी मूर्ति नहीं है । ये विनता नन्दन परम तेजस्वी पक्षिराज गरुड़ हैं। इन्हीं को देखकर आप लोगों को भ्रम हुआ है ।
ये नागों के नाशक, देवताओं के हितैषी और आसुरों के शत्रु हैं । आप इनसे भयभीत न हों । मेरे साथ चलकर इनसे मिल लें" । अग्नि के साथ जाकर देवता और ऋषियों ने गरुड़ की स्तुति की । देवता और ऋषियों की स्तुति सुनकर गरुड़जी ने कहा "मेरे भयंकर शरीर को देखकर जो लोग घबरा गये थे, वे अब भयभीत न हों । मैं अपने शरीर को छोटा और तेज को कम कर लेता हूँ" । सब लोग प्रसन्नता पूर्वक लौट गये ।