मकड़जाल
एक बड़ी - सी मकड़ी मेरी ओर आ रही थी, कि तभी उस पर मेरी नज़र पड़ गई । पहले सोचा शायद किसी कीड़े मकोड़े के लिए आ रही होगी, लेकिन देखा कि वह अपने ही जाले से लटककर झूल रही थी । सहसा वह ठीक मेरे सामने थी । मैं बहुत घबरा गई । संध्या का समय था, इसलिए कमरे में रोशनी नाम मात्र की थी । फिर भी मैं उसे बिल्कुल साफ साफ देख पा रही थी । शायद यह मेरा भय था, जो मेरी सभी ज्ञानेंद्रियां अति सक्रिय हो गईं । उसकी बड़ी बड़ी आंखें चमक रही थीं, और आड़े तिरछे से उसके पैर... लगातार चल रहे थे । थोड़ी देर मेरी ओर ताकती रही और फिर अपने स्थान पर ही घूमने लगी । अब मेरे सब्र का बांध टूटने लगा था । मैंने अपने पास रखी एक किताब पकड़ कर उसको दूर हटाना चाहा ।
"रुको!!"
ये कैसी आवाज़ थी, जिसने मुझे मकड़ी को हटाने से रोक दिया । मैंने ध्यान से देखा तो...जाने क्यों लगा मकड़ी मुस्कुरा रही है । ऐसा कैसे हो सकता है। मैं सोच ही रही थी, कि फिर एक आवाज़ आई ।
"तुम तो चेहरा पढ़कर सामने वाले को पहचानने का दावा करती हो, है ना । फिर मुझे देख कर डर क्यों रही हो ? विधाता ने ऐसा ही बनाया है हमें । एक भयानक रूप देकर उसने इस धरती पर भेजा है । इस बात का अफसोस नहीं है हमें, क्योंकि अपनी हर आवश्यकता स्वयं पूरी कर लेते हैं हम । किसी पर किसी भी प्रकार की कोई निर्भरता नहीं है । रंग रूप आकार प्रकार तो समय के साथ चला ही जाना है । खुद को देखो ना, तुम मुझसे आकार प्रकार में बहुत विशाल हो और तुम्हारी सोच भी मुझसे बहुत आगे है। क्या बिगाड़ पाऊंगी मैं तुम्हारा ? मुझसे डर कर अगर तुम मुझे मार भी दोगी, तब भी कौन सा बड़ा काम कर लोगी । हम शिकार की तलाश में निकलते हैं, तो अक्सर ही शिकार होते हैं । हमारा जीवन ही ऐसा है ।"
यह सब एक मकड़ी बोल रही थी, देखकर मैं स्तब्ध थी । जाने मुझे क्या हो गया था । मैं किसी अबूझ आकर्षण में बंधे हुए सब कुछ शांति से सुन रही थी ।
"जानती हो हम जाला बनाते हैं, कीटों को फंसाने के लिए और कई बार अपनी सुविधा के लिए । जैसे इस समय तुमसे बात करने के लिए मुझे तुम्हारे सामने आना था, इसलिए ये जाला बुनकर मार्ग बनाकर सामने आई । ये हमारा तरीका है । हम ऐसे ही अपने रास्ते खुद बनाते हैं । किसी और से यह उम्मीद नहीं करते कि वे हमें रास्ता दिखाएं ।"
"क्या कर रही हो तुम ? कभी सोचा है इस बारे में ?" मकड़ी ने कहा ।
"मैं क्या कर रही हूं, जो तुम्हें मुश्किल में डाल रहा है । स्वयं को बचाने के लिए तुम्हारा जाला ही तो हटाने जा रही थी", मैंने कहा ।
वह ज़ोर ज़ोर से हंसने लगी । उसकी हंसी उसके रूप की तरह ही भयानक थी ।
मकड़जाल
वह बोली, "अरी ये जाला हटाना कौन सा बड़ा कार्य है । प्रतिदिन घर की सफाई करती हो ना । ये बताओ आखिरी बार तुमने घर की दीवारों पर लगे जाले कब साफ किए थे ।"
"याद नहीं, जब भी कहीं जाले लगे देखती हूं, तुरंत साफ कर देती हूं", मैंने कहा ।
“क्यों ? बता सकती हो", मकड़ी बोली ।
मैंने कहा, "घर में गन्दगी हो, मुझे बिल्कुल पसन्द नहीं है । लोग भी कहते हैं, जिस घर में जाले लगे रहते हैं, वहां से लक्ष्मी नदारद हो जाती है । घर में जाले लगे रहें, ये शुभ संकेत नहीं माना जाता ।"
बड़ी गहरी सांस लेकर मकड़ी बोली, "ओह!! लोगों का कहा बहुत सुनती हो और मान भी लेती हो । ताज्जुब है! घर के जाले भौतिक वस्तुओं की सुन्दरता के लिए हटाया करती हो । जो तुरन्त हटाने इतने आवश्यक भी नहीं हैं । अपने इर्द गिर्द जो जाल बनाकर लिपटी पड़ी हो, उसे कब हटाने वाली हो । इसके लिए भी किसी शुभ मुहूर्त की प्रतीक्षा कर रही हो क्या ? एक बार इन जालों को हटाने का प्रयास तो करो । बहुत आसान है तुम्हारे लिए । तुमने स्वयं बनाया है और स्वयं ही फंस गई ? अपने मन के अतिवादी रूप से बाहर निकलो । ये कैसी कारीगरी है तुम्हारी ? क्यों करती हो ऐसा ? तुम्हारी इच्छाएं, उम्मीदें, खुशियां सब दूसरों से क्यों जुड़ जाती हैं ?"
"ये जीवन तुम्हारा अपना है और तुम इसके लिए पूरी तरह ज़िम्मेदार हो । हर बार कोई दूसरा ही क्यों आयेगा तुम्हारे लिए ? बताओ ना ।"
"तुम्हारे हाथों में बल है, मन में अथाह शक्ति का भंडार है । चाहो तो क्या नहीं कर सकती । हर बार किसी की दया और कृपा तुम पर ही क्यों हो ? तुम भी तो किसी अन्य के भले के लिए कुछ कर सकती हो । लेकिन करोगी कैसे ? अपने डर से ही नहीं लड़ पा रही हो । क्या यह पहली बार है, जब तुम्हारे सामने मुश्किल आई है ? नहीं ना, तो हौसला क्यों खो रही हो । तुम्हारे पास बहुत से रास्ते हैं । उन पर ध्यान केंद्रित करो और एक दिशा निश्चित करके आगे बढ़ो । उस समय तुम आसानी से समझ पाओगी कि कौन सी कमियां तुम्हें बांध रही हैं और कौन सी अच्छाइयां तुम्हारा मार्ग प्रशस्त कर सकती हैं । जब सफल हो जाओगी, तब कमज़ोर लोगों के उत्थान के लिए कुछ करना । यह तुम्हें आत्मसंतोष देगा और तुम्हारे व्यक्तित्व को भी निखारेगा ।" इतना कहकर वह मकड़ी चुप हो गई ।
इतनी बातें सुनने के बाद भी मैं यकीन नहीं कर पा रही थी कि एक मकड़ी भी इस तरह बोल सकती है । विश्वास ही नहीं हो पा रहा था । मैं अपनी आंखें बंद करके मसलकर देखने लगी और जब आंखें खोलीं, तब देखा कि मेरे कमरे में हल्की हल्की रोशनी आ रही थी । भोर का समय था और सूर्यदेव की सवारी निकल रही थी । मैंने खिड़की के सारे पर्दे खोल दिए और हाथ जोड़कर अपने जीवन में आने वाली सतरंगी किरणों का स्वागत करने लगी ।
✍️गीता गरिमा पांडे
चित्र: गूगल से साभार 🙏
Sahil writer
05-Jul-2021 03:39 PM
Nice
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Chhavi
03-May-2021 01:44 PM
Good👍👍
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Gargi
08-Mar-2021 03:27 PM
Like it💐👌
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