आरम्भ

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क्षितिज से दिवाकर झांक रहा, लाली बिखरी भोर हो गई, कण-कण अलंकृत है धरा का, रविप्रभा सुनहरी पसर गई। रजनी ने दामन सरकाया, स्वर्णिम भोर दौड़कर आई, जीवन स्पंदन चले धरा ...

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