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*स्वप्न* कितने स्वप्न पड़े हुए थे, उस खण्डहरी दीवारों में। जहाँ बचपन गुजरा था, जिल्लत और अभावों में। रोज रात को छत का कोना,भीगता था अश्रु- जल से।मन भागता था, किसी ...