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*अष्टावक्र-गीता*2 सुख-दुख,धर्म-अधर्म का,है मानस संबंध। आप न कर्ता-भोक्ता,हैं स्वच्छंद-अबंध।। सकल जगत के आप ही,द्रष्टा हैं बस एक। मुक्त सकल बंधन रहें,द्रष्टा कहें अनेक।। अहं-सर्प-विष-पान कर,मानें कर्ता आप। मान अकर्ता अमिय पी,रहें ...