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अष्टावक्र-गीता-3 मन-प्रदत्त बंधन समझ,मिले मोक्ष मन-द्वार। बुद्धि-सोच जैसी रहे,वैसा मन-व्यवहार।। आत्मा साक्षी,पूर्ण है,सब में करे निवास। अमल-शांत-अनीच्छ यह,भ्रम बस भव-आभास।। चेतन,परिवर्तन रहित,नहीं द्वैत यह रूप। तजकर 'मैं'के बोध को,समझ वाह्य निज ...